Sunday, September 27, 2020

MAHARAWAL DURJANSALJI BHATI (DUDA) AND BRAVE RANA TRILOK SINGH AT JAISALMER SECOND JAUHAR SAKA - IMMORTAL RAJPUTS

“इण गढ़ हिन्दू बाँकड़ो”
 

*यदुवंशी भाटी राजवंश परम्परा में महारावल जैसलदेव जी ने जैसलमेर की स्थापना की।*

*महारावल जैसलदेव जी के बाद उनके पाटवी पुत्र काल्हण जी महारावल बने। महारावल काल्हण जी के पुत्र पाल्हण जी के पुत्र जसहड़ जी के वंशज जसोड़ भाटी कहलाए।


इसी वंश परम्परा में दूदा जी जसोड़ जैसलमेर के महारावल जी बने।

रावल़ मूल़राज अर रतनसी फरै साको करियां पछै जैसल़मेर रो गढ घणा दिन सोग में डूब्योड़ो सूनो पड़ियो रह्यो।

जैसल़मेर जैड़ो गढ अर सूनो !!आ बात जद महेवै रै कुंवर जगमालजी मालावत नै ठाह पड़ी तो उणां आपरा आदमी अर सीधै रा सराजाम लेय जैसल़मेर कानी जावण रो मतो कियो।

उण दिनां काल़ काढण नै सिरूवै रा रतनू चंद्रभांणजी ई महेवै रैता, ऐड़ी सल़वल़ सुणी तो चंद्रभांणजी आपरै दादै आसरावजी नै समाचार कराया कै राठौड़ जैसल़मेर रो गढ दाबणो चावै!!

आसरावजी उणांनै पाछो कैवायो कै -

"जैसल़मेर जितो भाटियां रो गौरव उतो ई आपां रो गुमेज सो अजेज दूदे अर तिलोक नै कीकर ई समाचार करा जिकै सिंध में बैठा है।"

वे रात रा अंधारै में आपरी सांयढणी माथै डोल़ कर टुरिया जको रातोरात जसहड़ रै बेटां दूदे अर तिलोकसी नै समाचार भुगताय पाछा आय राठौड़ां भेल़ा होया।

राठौड़ बाजरी रै पाखल़ै भर अर आपरा आदमी लेय जैसल़मेर कानी बुवा।

आसणीकोट कनै आया जदै रतनू आसरावजी आय जगमालजी नै मनवार करी कै म्हारी छांनड़ी गुढै ईज है ,राज !! पवित्र करो अर कुरल़ो थूक म्हनै ई मोटो करो!!

जगमालजी जाणता कै रतनू आसराव मोटो आदमी अर भाटियां रो आदरणीय है सो इणनै ई साथै लेय गढ में बड़णो ठीक रैसी।

सो उणां आसरावजी री मनवार राखी।

आपरी गाड्यां जैसलमेर कानी टोर खुद अर बीजा सिरदार सिरूवै आया।

बिछायतां होई।वल़ री तैयारी होवण लागी।जगमालजी खतावल़ करै अर आसरावजी उणांनै बातां अर कायब सूं भूलथाप दैवै।

रोटीबेल़ा सूं दोपारो अर दोपारै सूं खीचड़ै री वेल़ा होई पण रोटी री होल़ी मांगल़ी ई नीं!!

जगमालजी कह्यो "बाजीसा घोड़ी बिल में बड़ै !!इती बखत नीं है म्हां कनै ।आप तो है जकी लावो !जोगमाया रो प्रसाद मान माथै चढाय लेसां।आपनै संकोच री जरूत नीं है।घर सारू पावणो होवै,पावणै सारू घर थोड़ो ई होवै!!"

आसरावजी कह्यो 

"अरे वडा सिरदार कद भांडां रै भैंस्यां दूजै अर कद छछवार्यां छाछ नै आवै!!आपरो कद काम पड़ै म्हारै घरै आवण रो सो आपरै सारू रोटी बणतां जेज लागसी!!"

यूं करतां दिन बधियो।

आसरावजी नै समाचार मिलिया कै दूदो अर तिलोकसी आय गढ में जमग्या है।उणां रै जीव में जीव आयो।

दूदा अने तिलोकसी पायो गढ़ जैसाण ।
हाथ मंडा बैठा नृपत जाणक ऊगा भाण ।

जितै भोजन री तैयारी होई ।हेरां आय जगमालजी नै समाचार दिया कै गढ में भाटी आय बड़िया।उणां रात रै अंधारै में देखियो तो गढ सूं चानणो दीसियो।उणां आसरावजी नै पूछियो कै गढ में कुण आयो !!

आसरावजी इचरज में पड़तां कह्यो कै 

"हुकम और तो ऐड़ो कोई भाटी जाणियो नीं ,हो सकै दूदो-तिलोकसी जसहड़ोत आयग्या होवै तो ठाह नीं!!

ठालाभूला है!मोत नै टिल्ला देता अर बांथियां आवता बैवै!!"-


जीम भोज जगमाल,

तुरँग दिस करी तियारी।

कहियो हेरां कांन,

एम गल गई अपांरी।

दुरजनियो डकरेल,

उरड़ गिर जैसल़ आयो।

मरियां पैली माड,

न दै जसहड़ रो जायो।

गोठ रो मरम गढपत जदै,

जगमालै झट जाणियो।

आस नै रंग देयर उमंग,

तुरंग खेड़ दिस तांणियो।।

जगमालजी जाणग्या कै बाजीसा जणै ई रोटियां नै मोड़ो कीधो।

उणां रात उठै ई वासो लियो अर दिनूंगै दूदेजी नै समाचार कराया कै 

"धायां थांरी छाछ सूं म्हांनै कुत्ता सूं छोडावो यानि म्हांरी गाडियां अर बाजरी पाछी दे दिरावो।

दूदेजी अर तिलोकसी आपरै धोबां सूं सुगनां री हजार धोबां बाजरी पाछी दी ।बाकी आपरै कोठार में नखाई।

जगमालजी रै आदम्या कह्यो कै 

"भाटी है किताक !!चढो!! जको धका देय गढ खोसलां ला!!

जगमालजी रै बात जचगी पण आसरावजी कह्यो कै-

चला र मोत रै मूंडै जावणो ठीक नीं है।

आ दो आदम्यां रै मिण र दियोड़ी बाजरी है सो थां मांय सूं टणका दो आदमी मिणलो। उवां दी जितरी होवै जणै तो मतो करिया नीं जणै आया बिनै ई जावणो ठीक रैसी!!"

जगमालजी ,बाजरी मिणाई जको बारै सौ -तैरै सौ धोबा होया!!

आसरावजी कह्यो कै जकां रै मुट्ठै मोटे !उणां री तरवारां री मूठां ई मोटी!!लागै जको पाणी ई नीं मांगे।

जगमालजी समझग्या कै जैसल़मेर हाथ नीं आवै।

राठौड़ां रो मन मोल़ो पड़ियो।

उणां पाछी जावती बखत दो सांसण रोहड़ियां नै दिया।एक सांगड़ अर दूजो ओल़ेचा।

गोरहर में दूदेजी री आण फिरी।

दूदोजी नखतधारी रावल़ होया।जिणां गोरहरै रो गुमेज बधायो।बांकीदासजी आ तक लिखै जैसल़मेर रो जनम रावल़ दूदे रै घरै।

राज करतां नै दस वरस होवण लागा जणै सोचियो कै मरणो तो एक दिन है ई पछै क्यूं नीं जसनामो करर मरूं!!उणां पातसाह रो खजानो खोस लियो।दिल्ली खबर पूगी।सेना आई ।गढ घिरियो।

राजपूतां साको करण अर रजपूताणियां जमर कर अमर होवणो तय कियो।

रात रा दूदेजी सूता अर 

 उणां रो एक राजपूत धाऊ भाछेलो जिणरी ऊमर 15-16वरस री,इणां रा पग चांपै।अचाणचक दूदेजी री पगथल़ी माथै आंसू रो टोपो पड़ियो।

दूदोजी रो ध्यान भंग होयो।उणां धाऊ रै साम्हो जोयो तो चानणै में उणां नै लागो कै धाऊ उदास अर आंख्यां जल़जल़ी!!

दूदेजी उणरै खांधै माथै हाथ देयर कह्यो 

"जा रे गैला!!दूदे री रोटी खाय !मोत सूं डरै!!तैं सुणी नीं कै देस खातर अर धणी खातर मरै वो सीधो सरग जावै अर उणरो जस संसार गावै!!"

धाऊ नीची मीट घाल बोलियो-

"हुकम !म्है आपरै ऐठोड़ो खाधो है,मोत सूं हूं कांई डरूं !!मोत तो म्हारै सूं लुकती बैवै!!"

तो पछै मरण पथिक रै आंख में आंसू!! कांगैपणो रो प्रतीक है!!राजपूत होय इयां बाई री गल़ाई रोवणकाल़ो क्यूं होवै?" दूदेजी पूछियो तो धाऊ कह्यो-

"हुकम !म्है सुणी है कै कंवारा मरै उणां नै कठै ई गत नीं मिलै!!उणांनै लूण ढोवणो पड़ै।आ देखो ऊपर आकाश गंगा !!ऐ सगल़ा बापड़ा कंवारिया लूण ढोवै!!म्हनै ई सरग नीं उठै जाय आं रै भेल़ो लूण ढोवणो पड़सी!!"

थूं म्हारो राजपूत है!!थारी ओगत मतलब म्हारो मरण बिगड़णो!! दूदेजी आ कैय हाजरियां नै कह्यो -

"दो भायां नै अर मा'राज नै बुलावो!!"

भायां अर मा'राज आय अरज करी -

खमा !!कांई आदेश?

"म्हारी बेटी ,म्है इण धाऊ नै दी !!हणै फेरा करावो।प्रभात रा आपां सगल़ा सरग हालसां!!"

भायां कह्यो -

हुकम -

बाई !!इण धाऊ नै!!"

"हां ,इण धाऊ नै!!

राजपूत !!कांई छोटो अर कांई मोटो!!हाड ऊजल़ो अर तरवार में पाणी होवणो चाहीजै। अर ऐ दोनूं बातां इण धाऊ में है!!फेरां री तैयारी करावो!!नीं तो म्हनै मरियै नै मुखातर नीं!!" दूदेजी पाछो जाब दियो।धणी रो धणी कुण?

दूदेजी आपरी बेटी धाऊ नै परणाई।

सवार रो साको होयो।


सवार रा सूरज री किरणां रै साथै ई भाटियां मुसल़ां माथै किरमाल़ां काढी।

दूदोजी नाम रै गुण ज्यूं ई दुरजनां नै सालता रणांगण में विकराल़ रूप में जूझै हा।

लारै सूं किणी माथै रै झाटको बायो जको सिर न्यारो अर देह न्यारी!!हमें कुण कैवै कै ब्याव भूंडो!!

बिनां माथै लड़ती देह अर अरियां री झड़ती लासां नै देख घणै दोखियां नीसासो खाधो। सेवट आयो सो जावै।रावल़ दूदैजी री देह ई शांत होई।

एकर भल़ै गोरहर रा गौरव दीप बुझग्या।

गढ में मुसलां रो थाणो बैठो,भाटी पाछा दुरबल़ पड़िया।

रावल़ रतनसी रो कुलदीप घड़सीजी दर -दर भटकता मेहवै पूगा।किणी रै घरै रातवासो लियो।दिनूंगै घड़सीजी दांतण करै अर अठीनै अठै रो कुंवर जगमालजी निकल़िया।असैंधो आदमी देख कुंवर खराय साम्हो जोयो पण घड़सीजी कोई गिनार नीं करी!!आ बात बलाय रै बटकै जगमालजी रै खुभगी।उणरै ई घरै कोई उणनै आवकारो नीं दे आ बात वे कीकर अंगेजै।उणां जाय रावल़ मलीनाथजी नै अरज करी कै एक ओपरो राजपूत फलाणै घरै कुरल़ो करै हो ,म्हनै जंवारड़ा नीं करिया सो लागै कै तो सफा भुछ है कै कोई देसोत है।

रावल़जी तेड़ायो ।घड़सीजी अदब सूं मिलिया।ओल़खाण होई।रावल़जी आपरी पोती विमलादे परणाई।

रावल़जी सूं रजा मांग ,घड़सीजी जैसाण री धरा में आया।*आपरो रावल़ो *बधाऊड़ै रतनू *भोजराजजी* रै घरै उणां रै भरोसै भोल़ाय पातसाह री सेवा में बारै आदमी लेय गया।

इणां में दस राजपूत अर दो दादो -पोतरो *रतनू आसरावजी अर चिराईजी हा*।इणी चिराईजी रा सपूत रतनू भोजराजजी आपरी बखत रा सपूत चारण हा।इण बात रो दाखलो नैणसी आपरी ख्यात में इण भांत दियो है-

*तरै रावल़़ घड़सी आपरा माणस लेनै फल़ोधी रै किनारै सिरड़ां रै किनारै गांव बधाऊड़ो छै तठै माणसांनूं राखनै आप पातसाह री ओल़ग गयो।उठै वरस 12चाकरी कीधी ।आदमी 10तथा 12 भाटी आदमी 2 चारण कनै था उठै बोहत परेसान हुवा।भूख गाढा दबाया।*

घणा दिन सेवा करी।जणै पातसाह भाटी लूणंग ऊदलोत री रजवट सूं रीझियो अर कह्यो मांग!!जणै लूणंग कह्यो म्हांरो देस जैसल़मेर पावां।

पातसाह घड़सीजी नै परवानो लिख दियो।

घड़सीजी साथ साथै टुरिया सो बैतां बैतां राजबाई तलाई गुढै आया जणै इणांनै अपसुगन होया।साथ रुक सुगन विचारिया।सुगनी कह्यो धरती मिनख रो वल़ मांगै!!

कनै गिणती रा आदमी अर वे ई बिखै रा एक सूं बधर एक साथी ।धरती नै किणरो भख दियो जावै!!पूरो साथ गताघम में।

भाटियां नै दोघड़चिंता में देख रतनू आसरावजी बोलिया कै-

"थे सगल़ा एकूंको आदमी अर म्हे एकै घर रा दो।म्हारी इच्छा आ ईज होती कै जैसाण पाछो रावल़ रतनसी रै घरै आवै।सो आयो ,म्हे घणो ई सुख-दुख दीठो !!हमें नीं जीयां लाभ अर नीं मरियां हांण!!म्हारी वल़ जमी नै देय धपावो।अंकै ई विचारण री बात नीं!!"

आसरावजी री आ बात सुण एकर मून पसरगी पछै घड़सीजी बोल्या बाजीसा आ कीकर हो सकै!!म्हांरै हाथां आपरो भख !!रैयत नै कांई मूंढो बतावला अर कांई ऐड़ै राज रो करांला जिको आपरो रगत पी म्हारै गुढै आवै!!कांई म्हारी जात रै बटो नीं लागै कै-

*भाटी बदल़ै रतनुवां,*

*जो कुल़ सूधो नाय!!*

आसरावजी पाछो कीं कैता जितै साथ नै लारै घोड़ां रा पौड़ बाजता अर खेह उडती दीसी!!


रावल दूदा (दुर्जनसाल जी) भाटी  (1357 ई. से 1368 ई.)


जैसलमेर का साका (धर्म युद्ध) और जैौहर

जैसलमेर के प्रथम साके में रावल मूलराज और राणा रतनसी ने अलाउद्दीन खिलजी की सेना का सामना किया था इस साके में जौहर हुआ और तत्पश्चात् जैसलमेर पर मुस्लिम राज हुआ। जैसलमेर के प्रथम शाके के पश्चात् दुर्ग में बादशाह का थाना बैठा था। राजधानी से बाहर भाटी सेना विभिन्न दलों में बंटी हुई मौके की तलाश में थी। प्रथम शाके से पलायन करने वाले दूदा - तिलोकसी जसहड़ोतों (जसोड़ों) की टुकड़ी उस समय पारकर में रह रही थी। तोला पाहु चालीस घुड़सवारों सहित लीलमा(वर्तमान गडरारोड़ के पास) में जाकर रहा। बाकी सरदारों की टुकड़ियाँ भी चारों ओर फैली हुई उचित अवसर की तलाश में थी। वे जैसलमेर दुर्ग में रसद की पूर्ति को बाधित करते थे तथा यवन सैनिकों से उलझते रहते थे। कुछ समय बाद यवन अधिकारी बुरी तरह तंग आ गए। वे दुर्ग छोड़कर चले गए।
 पाँच वर्ष बाद महारावल दूदा भाटी वहाँ का शासक हुआ और उसने भी दिल्ली के मुसलमान तुगलक सुल्तानों से जबरदस्त लोहा दिया। 

महारावल दुर्जनसाल ने अपने पूर्वजों की राजगद्दी पर संवत १३५७ विक्रमी को जैसलमेर में विराजमान हुए इनके ११ रानिया थी । १ अमरकोट के सोढा राणा गड़सी जी की पुत्री से विवाह हुआ तथा अन्य रानिया थी । इनके ४ पुत्र थे । इनके भ्राता तिलोकसिंह महावीर थे । उन्होंने नगर थटटा के दुर्ग से कुमरा कुमरा नामक बलोच को मार कर धोड़िया और बहूत साधन छीन लीया और कई जगह लूट खसोट कर खूब धन इकठ्ठा किया और उस धन को सुक्रत में लगाया । दूदा ने खीवसर के करमसोत सरदार की कन्या से विवाह किया । इस राजकुमारी के  साथ खीवसर के सिरदार ने शादू वंशीय हूफा नामक चारण को भेजा था । जिसकी वीर रस पूरण कविताओं से दूदा बहुत प्रसन्न रहते थे । इनके भाई तिलोकसी चारों तरफ उपद्रव मचाते थे । 
रावल के भाई त्रिलोकसी ने सुल्तान के क्षेत्र में धाड़ा और लूट आरम्भ करा दी और सुल्तान के एक सामन्त काँगड़ बलोच को मार डाला और उसके बहुत से घोड़े ले आए। इसी प्रकार सुल्तान के लिए उन्नत नसल के घोड़े जा रहे थे सो वे भी रावल ने लूट लिए। यह जैसलमेर राज्य से बाहर जाकर सिन्ध और मुल्तान प्रदेशों में डकैतियां करते और लूटा हुआ माल लाकर जैसलमेर के रावल दूदा जी को नजर करते। एक बार सिंध नदी के तट के पास 550 खच्चरों पर सोने की मुहरें लादकर, सिन्ध प्रदेश के करों का शाही खजाना नगरथट्टा से दिल्ली ले जाया जा रहा था। सिन्ध नदी के किनारे पर स्थित भक्खरकोट के पास दोनों भाई दूदा और त्रिलोक सिंह, अपने साथियों सहित शाही काफिलें पर टूट पड़े। काफिलें के साथ चल रहे पठानों को भाटियों ने मार गिराया और शाही खजाना लूटकर जैसलमेर लेकर आ गये। इससे दिल्ली का सुल्तान क्रोधित हो गया, लेकिन वह कोई ठोस कदम उठा नहीं पाया।
कुछ समय पश्चात दिल्ली के सुल्तान के पीरजादों(गुरूओं) का काफिला मक्का की तीर्थयात्रा करके और अपने अरब के खलीफा से मिलकर वापस दिल्ली लौट रहे थे, इन पीरजादों के पास बहुमूल्य उपहार, भेंट आदि थे - जिसका आकलन उस काल में तेरह करोड़ रुपयों के बराबर था, साथ ही इनके पास 2200 अरबी नस्ल के घोड़े थे, यह दोनों पीरजादे बिना अनुमति जैसलमेर के क्षेत्र में से होकर जाने लगे। अपने राज्य की संप्रभुता का यह तिरस्कार दोनों भाटी राजकुमारों को असहनीय लगा और दोनों भाटी राजकुमारों ने मिलकर पीरजादों का वध कर दिया और उनके सभी घोड़े और 13 करोड़ रुपए की धनराशि जब्त कर ली। इसके अतिरिक्त रावल दूदा ने तुगलक के राज्य में इतने बिगाड़ किए कि जिनकी गिनती नहीं। 

 तब ऐकण नर अपिया फिरोजशाह हजूर।
 घोड़े लिए तिलोकसी है भाटी नर सूर।।

वीर तिलोक सी की उद्दणता की शिकायत बादशाह के पास पहुँचते ही वह आग बबूला हो गया। भाटियों द्वारा बार-बार शाही खजानों को लूटने की घटनाओं पर दिल्ली का सुल्तान तुगलक क्रोधित हो गया और अपनी असंख्य सेना से जैसलमेर पर आक्रमण कर दिया । राजपूत युद्ध के लिए पहले से ही तेयार थे यवन सेना ने घेरा डाल दिया और छः वर्ष पर्यन्त युद्ध होता रहा । किन्तु बादशाही सेना किला न जीत सकी । रावल दूदा ने जौहर और साका करने का निश्चय तो बहुत पहले ही कर रखा था। अब वह मुस्लिम सेना पर रोज धावे करने लगा। किले में भोजन सामग्री ख़तम होते देख दूदा ने एक चाल चली । उसने हरिजनों से सुअरोनियो का दूध निकलाकर खीर बनवाई और खीर को पतलों में लगाकर उन्हें किले से बाहर फेंकवा दिया । बादशाही सेना धोखा खा गयी । उसने खीर लगी पतलों को देख समझा की अभी तक किले में खाध्य सामग्री बहुत बाकि है । ऐसी सूरत में किला जीतना मुश्किल है । अतः मुसलमान सेनापति ने युद्ध बंद कर वापिस जाने की तेयारी कर ली । किन्तु इसी बीच देशद्रोही भीमदेव ने शहनाई बजाकर संकेत भेजा कि दुर्ग में रसद समाप्त होने को है। ऐसा भी कहते है कि उसने संदेश कहलवाया था किले में भोजन सामग्री ख़तम हो गयी है । अगर ३ दिन और ठहर जाये तो किला आसानी से जीत सकते है । अतः सेनापति के आदेश पर फिर युद्ध का बिगुल बज उठा वस्तुत भोजन सामग्री ख़तम हो चुकी थी ।

जैसलमेर गढ़ बीच जसोड़ सूत वरदाई
बरस तीन सात मास राज सुखदेस बसावी
बरस सात पंचमास कलह विग्रह बिच बीते ।
रख नाम संसार जेण पतिसाह वदीते
दूदे तिलोकसी राख नाम इण जग उघरे ।
जादव वंस कुल महपति कर साको नर सुधरे ।

 रावल दूदा ने जीत की आशा छोड़ जोहर का हुकुम दे दिया ।ओर भयंकर संग्राम कर वीरगति को प्राप्त हुए । इस युध्ह में जसोड़ उतेराव ने बड़ी वीरता दिखाई । ये जुझार हुए । और आज तक जैसलमेर की जनता द्वारा पूजे जाते है । उतेरव के वीरगति होने के पश्चात् वीर दूदा और तिलोक सी ने अपने साढ़े पांच हजार सेनिको के साथ असंख्य मुसलमानों को यमलोक भेज स्वर्ग प्राप्त किया । 

“रावल जमहर राचियो’’ 

इस प्रकार रावल ने साका करने का समय जानकर रानी सोढ़ी को जौहर करने की तिथि बताई। रानी ने स्वर्ग में पहचान करने के लिए रावल से शरीर का चिन्ह मांगा तब रावल ने पैर का अंगूठा काट कर दिया। दशमी के दिन जौहर हुआ। रानी ने तुलसीदल की माला धारण की तथा त्रिलोचन, त्रिवदन लिए और 1600 हिन्दू सतियों ने अग्नि में प्रवेश किया। अगले दिन एकादशी को रावल ने साका करने का विचार किया था सो सभी योद्धा मिल रहे थे। एक युवक राजपूत धाडू जो 15 वर्ष का था सो जूंझार होने वालों में से था। उसने सुना था कि कुंआरे की सद्गति नहीं होती है। अतः वह दु:खी हुआ। यह जानकर रावल ने अपनी एक मात्र राज कन्या जो नौ वर्ष की थी से धाडू का विवाह दशमी की आधी रात गए कर दिया। प्रभात होने पर उस राजकन्या ने जौहर में प्रवेश किया।

१५६८ में एकादशी को दुर्ग के कपाट खोले गए और 25 नेमणीयात (नियम धर्म से बन्धे) जूझारों के साथ सैकड़ों हिन्दू वीर शत्रु पर टूट पड़े। रावल दूदा के भाई वीर त्रिलोकसी के सम्मुख पाँजू नामक मुस्लिम सेना नायक आया। यह अपने शरीर को सिमटा कर तलवार के वार से बचाने में माहिर था। परन्तु त्रिलोकसी के एक झटके से सारा शरीर नौ भाग होकर गिर पड़ा। इस पर रावल दूदा ने त्रिलोकसी की बहुत प्रशंसा की। कहा इस शौर्य पर मेरी नजर लगती है।

कहते है तभी त्रिलोक सी का प्राणान्त हो गया। इस भयंकर युद्ध के अन्त में 1700 वीरों के साथ रावल दूदा अपने 100 चुने हुए अंग रक्षक योद्धाओं के साथ रणखेत रहे। भारत माता की रक्षा में रावल दूदा ने अपना क्षत्रित्व निभाया और हिन्दुत्व के लिए आशा का संचार किया। रावल दूदा सदा ही अपने को “सरग रा हेडाऊ” अर्थात् स्वर्ग जाने के लिए धर्म रक्षार्थ युद्ध में रणखेत रहने को तत्पर रहते थे। 1. त्रिलोकसी भाटी, रावल के भाई 2. माधव खडहड़ भाटी 3. दूसल (दुजनशाल) 4. अनय देवराज 5. अनुपाल चारण 6. हरा चौहान 7. घारू इस प्रकार जैसलमेर ने ‘उत्तर भड़किवाड़’ अर्थात् देश के उत्तरी द्वार कपाटों के रक्षक के अपने विरुद को चरितार्थ किया और भारत के प्रहरी का काम किया।

दूदा अने तिलोकसी साको कियो संसार
तेरह सो छासठ भड़ रहिया भाटी लार
एमारै अड़िया किले रहि या दल ने ठाह
हठ हुवो दूदो सरस पारम पेरोसाह
जैसलमेर दुग्गाम गढ़ बढे न आवे हत्थ
तो सरीखी सोदागिरी कैति कर गयी कत्थ
पड़े वाज गजराज पड़े वह रावत भारिया ।
पड़े खेत बंगाल जास को अंतन पारिया
पड़े खेत जदू राय जेण असगर नर खड़िया
पड़े सुर विकराल जेण जग नाम सो मंडिया
   चवदे हजार दो सो असिया भिड़े मीर रण खेत पड़
  दूदो तिलोकसि पड़िया पछे जैसल गिर पडियों अनड़


एक और कथा मिलती है इस जौहर की जिसमे महारावल दूदा की महारानी खीवसर थी । वहां चारण हुंफा द्वारा अमंगल समाचार सुनकर सत करने के लिए अपने पति का सिर लाने को कहा । हुंफा ने जाकर यवन सेनापति से सिर के लिए प्राथना की उसने जवाब दिया की रणभूमि में असंख्य सिर कटे है । यदि तुम रावल का सिर पहचान सकते हो तो ले जाओ हुंफा ने कहा मेरे लिए सिर का पहचानना कठिन नहीं है । मेरी वीर भरी कविताओं को सुनकर सर् हंस पड़ेगा । कविराज की अद्भुत बात सुनकर सेनापति व् उसके अनुचर भी साथ हो लिए रन स्थल में पहुँच कर हुंफा के कविता पढने पर महारावल का सिर खिल -खिला उठा । उसके कवित्व शक्ति की प्रशंसा में दोहा प्रसिद्ध है ।

:: दोहा :::

 सांदू हूफे सेवियों साहब दुर्जनसल ।
 विड़धे माथो बोलियों गीतों दुहो गल ।

इस प्रकार महारावल दूदा के १० वर्ष राज्यकाल के पश्चात् जैसलमेर फिर यवनों के अधिकार में चला गया ।

जैसलमेर दुर्ग के प्रथम प्रोल के सामने ढिब्बे पाड़े में महारावल दुर्जनशाल जी और उनके अनुज राणा त्रिलोकसी जी देवलियां व छत्रियां मुख्य बाजार से दक्षिणी गली में २० फीट की दुरी पर मौजूद है॥ ये हमारे पावन तीर्थ है॥

ऐसे अद्वितीय योद्धाओं के बलिदान दिवस मनाना हमारे लिए गौरव की बात है।


वर्ष के चैत्र सुदी एकादशी को मातेश्वरी देगराय मंदिर में हजारों लोगों की उपस्थिति में समारोह पूर्वक महारावल दूदा जी का बलिदान दिवस मनाते है।


संदर्भ : 1 नैणसी री ख्यात द्वितीय 2- Rajasthan Through the Ages I, Dr. Dashrath Sharma,


FORGOTTEN HERO RAO CHANDRASEN RATHORE - IMMORTAL RAJPUTS

 भुला बिसरा राजा,

प्रताप का अग्रगामी

राजस्थान के शिवाजी



राव चंद्रसेन जोधपुर के राव मालदेव के छटे नंबर के पुत्र थे, उनका जन्म वि.स.१५९८ श्रावण शुक्ला अष्टमी (३० जुलाई १५४१ई.) को हुआ था |

हालंकि इन्हें मारवाड़ राज्य की सिवाना जागीर दे दी गयी थी पर राव मालदेव ने इन्हें ही अपना उत्तराधिकारी चुना था |

राव मालदेव की मृत्यु के बाद राव चंद्रसेन सिवाना से जोधपुर आये और वि.स.१६१९ पोष शुक्ल षष्ठी को जोधपुर की राजगद्दी पर बैठे |

हालाँकि अपने भाइयों में ये छोटे थे पर उनके संघर्षशील व्यक्तित्व के चलते राव मालदेव ने अपने जीते जी इन्हें ही अपना उत्तराधिकारी चुन लिया था |

राव चंद्रसेन के जोधपुर की गद्दी पर बैठते ही इनके बड़े भाइयों राम और उदयसिंह ने राजगद्दी के लिए विद्रोह कर दिया था | राम को चन्द्रसेन ने सैनिक कार्यवाही कर मेवाड़ के पहाड़ों में भगा दिया तथा उदयसिंह जो उसके सहोदर थे को फलौदी की जागीर देकर संतुष्ट किया |

राम ने अकबर से सहायता ली और अकबर की सेना मुग़ल सेनापति हुसैनकुली खाँ के नेतृत्व में राम की सहायतार्थ वि.स.१६२१ में जोधपुर पहुंची और जोधपुर के किले मेहरानगढ़ को घेर लिया |

आठ माह के संघर्ष के बाद राव चंद्रसेन ने जोधपुर का किला खाली कर दिया और अपने सहयोगियों के साथ भाद्राजूण चले गये | और यहीं से उसने अपने राज्य मारवाड़ पर नौ वर्ष तक शासन किया | भाद्राजूण के बाद वह सिवाना आ गये ।

वि.स.१६२७ भाद्रपद शुक्ला दसमी को अकबर जियारत करने अजमेर आया वहां से वह नागौर पहुंचा जहाँ सभी राजपूत राजा उससे मिलने पहुंचे ।

राव चंद्रसेन भी नागौर पहुंचे पर वह अकबर की फूट डालो नीति देखकर वापस लौट आये उस वक्त उसका सहोदर उदयसिंह भी वहां उपस्थित था जिसे अकबर जोधपुर के शासक के तौर पर मान्यता दे दी |

वि.स.१६२७ फाल्गुन बदी १५ को मुग़ल सेना ने भाद्राजूण पर आक्रमण कर दिया, पर राव चंद्रसेन वहां से सिवाना के लिए निकल गये | सिवाना से ही राव चंद्रसेन ने मुगल क्षेत्रों अजमेर, जैतारण, जोधपुर आदि पर छापामार हमले शुरू कर दिए |

राव चंद्रसेन ने दुर्ग में रहकर रक्षात्मक युद्ध करने के बजाय पहाड़ों में जाकर छापामार युद्ध प्रणाली अपनाई | अपने कुछ विश्वस्त साथियों को किले में छोड़ खुद पिपलोद के पहाड़ों में चले गये और वही से मुग़ल सेना पर आक्रमण करते उनकी रसद सामग्री आदि को लुट लेते ।

बादशाह अकबर ने उसके खिलाफ कई बार बड़ी बड़ी सेनाएं भेजी पर अपनी छापामार युद्ध नीति के बल पर राव चंद्रसेन अपने थोड़े से सैनिको के दम पर ही मुग़ल सेना पर भारी पड़ते ।

वि.स.१६३२ में सिवाना पर मुग़ल सेना के आधिपत्य के बाद राव चंद्रसेन मेवाड़, सिरोही, डूंगरपुर और बांसवाडा आदि स्थानों पर रहने लगे ।

कुछ समय बाद वह फिर शक्ति संचय कर मारवाड़ आये और वि.स.१६३६ श्रावण में सोजत पर अधिकार कर लिया |

उसके बाद अपने जीवन के अंतिम वर्षों में राव चंद्रसेन ने सिवाना पर भी फिर से अधिकार कर लिया था | अकबर उदयसिंह के पक्ष में था फिर भी उदयसिंह राव चंद्रसेन के रहते जोधपुर का राजा बनने के बावजूद भी मारवाड़ का एकछत्र शासक नहीं बन सका |

अकबर ने बहुत कोशिश की कि राव चंद्रसेन उसकी अधीनता स्वीकार कर ले पर स्वतंत्र प्रवृति वाला राव चंद्रसेन अकबर के मुकाबले कम साधन होने के बावजूद अपने जीवन में अकबर के आगे झुके नहीं | और उन्होंने अकबर के साथ विद्रोह जारी रखा |

वि.स.१६३७ माघ सुदी सप्तमी,११ जनवरी १५८१ को मारवाड़ के इस महान स्वतंत्रता सेनानी का सारण सिचियाई के पहाड़ों में ३९ वर्ष की अल्पायु में स्वर्गवास हो गया |

इस वीर पुरुष की स्मृति में उसके समकालीन कवि दुरसा आढ़ा की वाणी से निम्न शब्द फुट पड़े -


अणदगिया तूरी ऊजला असमर, चाकर रहण न डिगियो चीत | 

सारा हींदूकार तणे सिर पाताळ ने, "चंद्रसेण" प्रवीत ||


The 'forgotten hero' of Marwar who watered the land of his birth by his own blood and the blood of his faithful followers in an attempt to maintain the independence of Marwar against the rising power of the Mughals under Akbar and refused to have any form of alliance with the Mughals.


Rao Chandrasen Rathore became the Raja of Jodhpur at the age of 21. He defended his kingdom for nearly two decades against relentless attacks from the Mughal Empire.

Bhadrajun Fort of Jalore.

Place where Rao Chandrasen Rathore entrenched himself after 1564 and made it his base to fight against Akbar, a war which went on for a total of 22 yrs until the death of Rao Chandrasen in 1581.

The Forgotten King, forgotten even by his own. Couple of years back, his memorial was repaired by a humble school teacher. Samadhi Sthal of The Great "Rao Chandrasen Ji of Marwar". He was born on 16th July 1541.He took his last breath here in year 1580 in Saran village which is almost 4-5 kms from Siriyari, a village in Pali district of Rajasthan. 

'मारवाड़ के राणा प्रताप' स्वाभिमानी योद्धा राव चंद्रसेन जी राठौड़ की ४४० वीं पुण्यतिथि पर शत शत नमन.. 🙏🙏 




Saturday, September 19, 2020

THE CULMINATION OF ZAHIRUDIN MUHAMMAD BABUR CRUELTY


जिसको 6 घंटे में राणा सांगा घुटने टिकवा देते हैं उससे लड़ने के लिए उन्हें किसी बाबर की जरूरत क्यों पड़ेगी....?


१५१७ के इस युद्ध को इसलिए इतिहास से छुपा लिया गया ताकि ये झूठ बोला जा सके कि राणा सांगा ने लोधी से लड़ने के लिए बाबर को बुलाया था भारत का पराक्रम इतना कमजोर नही था....आप इस शिला लेख में देख सकते है राणा सांगा जैसे पराक्रमी योद्धा स्वयं खप जाएंगे परन्तु किसी म्लेच्छ से सहयोग लेने का विचार कभी नही करेंगे ऐसा भ्रम व मिथ्या इतिहास को वामपंथी गैंग ने जान बूझकर षड्यंत्र के लिए फैलाया... 


The history textbook we learned from had 34 lines on that Turk Lutera Babur vs a single one about The Great Maharana Sanga.


It never taught us about Babur's atrocities or destruction of Ram Mandir but hailed his love for art! 

Art of subtle brainwashing of Native kids

Babur Is GREAT


Tulsidas is Misogynist

BABUR Ruled India only 4 YEARS
But these kangresissies made us feel Like 400 Years


But is it true that Babur has to trade his sister for freedom ?

Let's Love BABUR,


But First ! Let's Read बाबर-नामा


Will show you small Trailer first...


First Let's Know a Bit about 
Teil lagalo dabur ka
Naam mitado Turk Lutere babur ka


Who actually looked like a mongol since nana Yuniz Khan was a descendant of Chenghiz. Some of the earliest Persian miniature portraits of that ogre.


Babur wouldn't be Uzbek because their ethnogenesis hadn't happened yet. Uzbeks were Kipchak Turks like Kazakhs while modern Uzbeks are Karlukh Turks.

Modern Uzbek identity was created by the Russians in early 20th century by renaming Karlukh Sarts.


His MOTHER claimed from Lineage of 
Fun Loving 'GENGHIS KHAN'
And
Father from Lineage of Earth Noblest Soul 
Tughlugh ' TIMUR ' 
Check the Details below.



His Full Name was
ZAHIRU'DIN MUHAMMAD BABUR - PADSHAH GHAZI ( Mirzu of dhimmies/babLi... )

-PADSHAH->Badshah->king

-GHAZI- Means Islam!c soldier who Fights Against and slay  the 
Inf!dels to Establish Their Rule


His memoir BABURNAAMA बाबर-नामा-Originally Written in Turki Language Under AKBAR who also got it Translated into Persian, However, 'Annette Susannah Beveridge' in 1921 did Direct Translation from Actual Turki Language.

Now See Some Excerpts of His Greatness:


Babur's ancestry, and his Uzbek history small-time chieftains son, an ambitious militia a war hardened killer machine who lost miserably to many small chieftains before attempting his eastward journey to land of milk and honey.



During Battle with Inf!del Rana Sangha, 
Babur Describes the Enemy Country India 
as DARU'L-HARB
& Showers Love on the Enemy

But But Hate Means Love 

PLEASE READ SLOWLY


Description of Fasc!st defeated HINDUS
in the Enemy Army
Read and Love


Babur on Baburi:

"I maddened and afflicted myself for a boy in the camp-bazar, his very name, Baburi, fitting in."


He wrote couplets & poems too for him.


Description of his Love for a BOY, 
Awww….. So Romantic
Wow Emperor I bow to Thy
Liberal thinking

Any resemblance with any Monument 
is a pure coincidence



Ofcourse HINDUS Were Poor&Weak, 
It's Just by Mistake that his trusted man, Shaikh Zain 
in his फतहनामा wrote to Babur that 
Hindus were the Wealthiest & Most PowerFul Infidels.
Oh ho, Just Ignore na.


Gwalior Gopachal Parvat :

The culmination of Babur's cruelty.

Sufi Muhammad Ghaus helped Babur capture the Gwalior fort.

His Dargah is a Hindu temple which was seized by these Muslim invaders.

With So much Love Babur, had for India, 
We Must Declare Babur as Our Own. 

Babar's army of 12,000 men was mostly undisciplined group of men who wanted to loot the riches of India. These 12,000 men, a tiny army with which to attempt the conquest of Afghan Sultan Ibrahim Lodhi's realm, Sultan Ibrahim Lodhi ruled Delhi. Haughty n cruel, he had alienated many. 


Punjab was held by Daulat Khan Lodhi. Eager to get rid himself from Sultan Ibrahim Lodhi, he sent envoys to Babur for help. Babur couldn't be happier. He had failed to capture Khurasan in the past. Now was his chance to enter India. First devasted Punjab. 

Sant Nanak Dev Ji in his famous epic named "Babarvani" describes the atrocities of Babar and his men in Punjab.

Babarvani (Babar's command or sway) is how the four hymns by Sant Nanak Dev Ji alluding to the invasions by Babar (1483-1530), are collectively known in Sikh literature. The name is derived from the use of the term in one of these hymns "Babarvani phiri gal kuiru na rot khai -Babar's command or sway has spread; even the princes go without food" (GG, 417). Three of these hymns are in Asa measure at pages 360 and 417-18 of the standard recension of G.G.S. and the fourth is in Tilang measure on pages 722-23.


Sant Nanak warned Daulat Khan that Babur would only overtake them. His words fell on deaf ears. He wrote:

Such are the blasphemers
Who set themselves up
As leaders of the world;
Consuming daily
Forbidden fruit of falsehood,
Yet they preach to others,
What's right n what's wrong.
Themselves deluded, 
they delude others too
Who follow in their path.
If one drop of blood 
Pollutes a garment
Rendering it unclean
To be worn in prayer;
How can they who like 
Vampires suck human blood 
Then be passed as pure? 
(p. 140)




Zahir-ud-Din Muhammad Babar, driven out of his ancestral principality of Farghana in Central Asia, occupied Kabul in 1504. Having failed in his repeated attempts to reconquer the lost territory and unable to expand his new possessions in the direction of Khurasan in the west (which had once formed part of his grandfather's dominions), he turned his eyes towards India in the east.  Sant Nanak was an eye witness to 3rd 4th n 5th invasions by Babur.  He openly condemned Babur's cruelty to innocents particularly women. 1st verse tells of wreckage of Syedpur (now Eminabad), 2nd the rape of Lahore, 3rd the terrible aftermath of battle of Panipat, 'Jaisi Main Avai" is 1 of 4 poems included in what is called "Babarvani" or 'Baburnama' describing 4 invasions by Babur (1483-1530).  

After an exploratory expedition undertaken as early as January-May 1505, he came down better equipped in 1519 when he advanced as far as Peshawar.

The following year he crossed the Indus and conquering Sialkot without resistance, marched on Saidpur (now Eminabad, 15 km southeast of Gujranwala in Pakistan) which suffered the worst fury of the invading host. When residents of Syedpur didn't surrender willingly to Mughal army, Babur ordered a bloody massacre of city dwellers, subject of this poem. 

The town was taken by assault, the garrison put to the sword and the inhabitants carried into captivity. During his next invasion in 1524, Babar ransacked Lahore. His final invasion was launched during the winter of 1525-26 and he became master of Delhi after his victory at Panipat on 21 April 1526.



Baba Nanak was an eye witness to the havoc created during these invasions. Janam Sakhis mention that he himself was taken captive at Saidpur. A line of his, outside of Babarvani hymns, indicates that he may have been present in Lahore when the city was given up to plunder. Baba Nanak was traveling back from Mecca, & reached Syedpur to stay with Bhai Lalo.  Along with women & children of city, they were imprisoned by Babur & made to carry loads of wealth on their backs for the invading troops returning to Afghanistan. Baba Nanak saw all firsthand. Guru Nanak's song of truth that describes the condition of Syedpur after it was devastated by Babur in 1521:

 In six pithy words this line conveys, "For a pahar and a quarter, i.e. for nearly four hours, the city of Lahore remained subject to death and fury" (GG, 1412). 

Jaisi Main Avai Khasam ki Baani, taisada kari gyaan vey Lalo
(As the Word of the divine comes to me, so do I express it, O Lalo)
"Pap ki janj le Kabulon Dhayia Jori Mange Dan Ve Lalo"
(Bringing a wedding party of sin from Kabul 
He (Babur) demands land as his wedding gift, O Lalo.)

"Kajiyan Bahmna ki gal Thaki, Agd Pde Saitan Ve Lalo"
((Qazis & Brahmins lost their roles & Satan conducts wedding rites, O Lalo.)
"Musalamanian padehi katheba kasat mehi karehi khudhai Ve laalo" 
(Muslim women read Quran & in their misery call upon Khuda O Lalo.)

"Jat sanathi hor hindavaniyan ehi bhi lekhe laye Ve laalo"
(Hindu women of all classes, have met the same fate, O Lalo.)
"Khoon ke sohile gavehi nanak rath ka kungoo paye Ve laalo"
(Sing the songs of murder, Nanak, sprinkling the dye of blood, O Lalo.)

Clearly he fears same fate as others, to be killed by Mughals & he accepts it as Will of God.  But he & Lalo escaped in end.

In 1524, Babur ransacked Lahore & in 1525 he conquered Delhi.

Baba Nanak wrote:
"Shahan surti gawayiyan rng tamashe chayi!"
Local kings lost alertness, lost in sensual pleasures.

"Baburvani firi gayi kuanr na roti khayi!"
Then at Babur's command even princes lost their bread. 

In spite of his destructive role Babar is seen by Baba Nanak to have been an unwitting instrument of the divine Will. Because the Lodhis had violated God's laws, they had to pay the penalty. Babar descended from Kabul as God's chosen agent, demonstrating the absolute authority of God and the retribution which must follow defiance of His laws. Sant Nanak's commentary on the events which he actually witnessed thus becomes a part of the same universal message. God is absolute and no man may disobey His commands with impunity. Obey Him and receive freedom. Disobey him and the result must inevitably be retribution, a dire reckoning which brings suffering in this present life and continued transmigration in the hereafter.


Most famous of the verses from Baburvani is this:

"Khurasan Khasmana Kiya Hindustan Draya"
(Having attacked & destroyed Khurasan, Babur terrified Hindustan.)

"Aape Dos Na Deyi Kartar Jamu Kari Mughal Chadhaya"
(Creator Himself doesn't take blame, he has sent the Mughal as Yama.)

"Eti Maar Payi Karlane Tain Te Dard Na Aya!"
(Such slaughter that people cried in horror!
Yet You felt no mercy, Lord?)

"Kartar Tu Sabhna Ka Soyi!"
(O Creator, You are yet Master of all.)

"Je Skta Sakte Ko Mare Mann Rosh Na Hoyi!"
(If one strong man hits another, there is no outcry!)

"Sakta Seehu Mare Payi Vge Khasme Sa Pursayi!"
(But if merciless tiger kills a flock of sheep;
Then its Master must answer for it.)

"Ratan Vigade Vigoye Kutin Muiya Sar Na Koyi!"
(This priceless land wasted & defiled by dogs (invaders); 
& no one paying heed to the dead.)

"Ape Jode Vichhode Ape Vekhi Teri Vadiyayi!"
(You unite & You separate; 
Such is your power O Lord!)

"Je Kou Nam Dharaye Vada Saad Kre Mann Bhane!"
(One may give Oneself a great name,
Reveling in pleasures of mind;
Considering oneself greatly enlightened!)

"Khasme Nazari Keeda Aave Jete Chuge Dane!"
(Yet in the Eyes of Master, he is just a worm, 
For all the corn that he eats.)

"Mari Mari Jive Taan Kichhu Paaye Naanak Naam Vakhane!"
(Only if one's ego dies while still alive, one is blessed, 
O Nanak, by chanting His Name!)

In a touching 8 stanza poem, Sant Nanak portrays the tragic plight of women, both Hindu and Muslim, who lost their husbands and suffered ignominy at the hands of the invaders.

They whose hair made them look fairer by far and who touched it lovingly
with sacred vermilion, Have had their heads shorn with scissors,
and their throats choked with dust. They who stirred not out of their private chambers are now denied shelter even on the roadside.
Praise, praise be unto Thee, 0 Lord! We understand not Thy ways;
Everything is in Thy power and Thou seest Thyself in diverse forms at
Thy Will. When they were married, their handsome bridegrooms added to their splendour;
They came seated in palanquins with ivory bangles asport on their arms;
They were awaited with ceremonial pitchers full of water and with fans arabesqued in glass.
Gifts of money were showered on them as they sat, and gifts of money showered as they stood:
They were given coconut and dates to eat, and they joyed on the bridal bed.
Halters are now around their necks, and broken are their strings of pearls.
Riches, youth and beauty they formerly relished have turned into their enemies;
Minions at the conqueror's behest drag them to dishonour.
The Lord, if it pleaseth Him, bestoweth greatness, and sendeth chastisement if He so desireth.
Had they contemplated in advance, they might have escaped punishment, But the rulers had lost their sense in their fondness for levity and frivolity;
[now that] Babar's sway hath spread;even the princes go without bread.
Some, the Muslims, miss the timings of namaz, others, the Hindus, of their puja;
Hindu ladies, without their ritually cleansed cooking squares, go about without a vermilion mark their foreheads;
They never remembered 'Rama' here to fore, and are allowed to utter even 'Allah' no more.
Some, after the carnage, have returned home and are enquiring about the well being of their kin;
Others, in whose destiny it was so recorded, sit wailing over their sufferings.
Nanak says, what He desireth shall happen; who is man Him to question?


In another hymn in the series, Baba Nanak describes the desolation which followed Babar's invasion ending in the battle of Panipat:

Where is that sport now, where those stables and steeds, and where are the drums and where the flutes?
Where are the sword belts and where the chariots; and where are those scarlet uniforms?
Where are those finger rings studded with mirrors; and where are those handsome faces?
This world is Thine, Thou art its Master, 0 Lord !
In one moment Thou settleth and in another unsettleth.
The lure of gold sunders brother from brother.
Where are those houses, those mansions and palaces; and where are those elegant looking serais?
Where are those snug couches and where those beautiful brides a sight of whom made one lose one's sleep?
Where is the chewing leaf, where the leaf sellers and where those who patronized them?
All have vanished like a shadow.
For this gold many were led astray; many suffered ignominy for it.
Without sinning one doth not gather it, and it doth not go with one in the end.
Whomsoever the Creator would confound, He first forfeiteth his virtue.
Countless pirs tried their miraculous powers to halt the Mir (Babar) as they heard of his approach.
He burned ancient seats and houses strongly built and cast into dust princes after severing their heads.
Yet no Mughal became blind and no magic of the pirs worked.
The Mughals and the Pathans were locked in battle, and they wielded their swords relentlessly, They fired their guns;they attacked with their elephants.
They whose writ is torn in the Lord'scourt must perish, my brethren.
Of the wives of Hindus, of Turks, of Bhattis and of Thakur Rajputs,
Some had their veils torn from head to foot, others lay heaped up in cemeteries;
How did they pass their nights whose husbands returned not home?


The fourth Babarvani hymn is probably addressed to Bhai Lalo, one of Baba Nanak's devotees living at Saidpur itself. It ends on a prophetic note, alluding perhaps to the rise of Sher Khan, an Afghan of Sur clan, who had already captured Bengal and Bihar, defeated Babar's son and successor, Humayun, at Chausa on the Ganga in June 1539 (during the lifetime of Sant Nanak), and who finally drove the Mughal king out of India in the following year. The hymn in Tilang measure is, like the other three, an expression of Baba Nanak's feeling of distress at the moral degradation of the people at the imposition by the mighty. It is a statement also of his belief in God's justice and in the ultimate victory of good over evil.

In an English rendering:

As descendeth the Lord's word to me, so do I deliver it unto you, 0 Lalo
[Babar] leading a wedding array of sin hath descended from Kabul and demandeth by force the bride, 0 Lalo.
Decency and righteousness have vanished, and falsehood struts abroad, 0 Lalo.
Gone are the days of Qazis and Brahmans, Satan now conducts the nuptials,0 Lalo.
The Muslim women recite the Qur'an and in distress remember their God,0 Lalo.
Similar is the fate of Hindu women of castes high and low, 0 Lalo.
They sing paeans of blood, 0 Nanak, and by blood, not saffron, ointment is made, 0 Lalo.
In this city of corpses, Nanak proclaimethGod's praises, and uttereth this true saying:
The Lord who created men and put them to their tasks watcheth them from His seclusion.
True is that Lord, true His verdict, and true is the justice He dealeth.
As her body's vesture is torn to shreds, India shall remember my words.
In fifteen seventyeight they come, in fifteen ninetyseven shall depart;
another man of destiny shall arise.
Nanak pronounceth words of truth,Truth he uttereth; truth the time calls for.

Such was the pain ignited in the great Guru's heart by witnessing Babur's atrocities. He called Babur a cruel tiger, & the innocent citizens of erstwhile Punjab a flock of sheep. He called the invaders a pack of dogs, who violated all women & killed little children.


The Baba Nanak Dev Ji was an enlightened soul & yet he was shaken to core by this bloodshed, to the extent that he questioned the Mercy Of God! Yet we ignored his words & trusted the progeny of same Mughal over & again! Even preserving a mosque in his name! High time we learned!

High time we erase all marks of their invasion & associated pain frm our land. High time we get rid of all "Bads" & "Ganjs" that replaced our "Purs"! High time we reclaim our glorious temples they built their eyesores atop! 

High time we roar Jai Shri Ram



Friday, September 18, 2020

YADUKUL PARAMVEER YODHA BHANJI DAL JADEJA / BATTLE OF MAJEVADI, JUNAGADH AND TAMACHAN - IMMORTAL RAJPUTS

राजपूत एक वीर स्वाभिमानी और बलिदानी कौम जिनकी वीरता के दुश्मन भी कायल थे, जिनके जीते जी दुश्मन राजपूत राज्यो की प्रजा को छु तक नही पाये अपने रक्त से मातृभूमि को लाल करने वाले जिनके सिर कटने पर भी धड़ लड़ लड़ कर झुंझार हो गए।


वक़्त विक्रम सम्वंत १६३३ (१५७६ ईस्वी)। मेवाड़,गोंडवाना के साथ साथ गुजरात भी उस वक़्त मुगलो से लोहा ले रहा था। गुजरात में स्वयं बादशाह अकबर और उसके सेनापति कमान संभाले थे।
अकबर ने जूनागढ़ रियासत पर १५७६ ईस्वी में आक्रमण करना चाहा तो वहा के नवाब ने पडोसी राज्य नवानगर (जामनगर) के राजपूत राजा जाम सताजी जडेजा से सहायता मांगी। क्षत्रिय धर्म के अनुरूप महाराजा ने पडोसी राज्य जूनागढ़ की सहायता के लिए अपने ३०,००० योद्धाओ को भेजा जिसका नेतत्व कर रहे थे नवानगर के सेनापति वीर योद्धा भानजी जाडेजा।


सभी राजपूत योद्धा देवी दर्शन और तलवार शास्त्र पूजा कर जूनागढ़ की और सहायता के लिये निकले लेकिन माँ भवानी को कुछ और ही मंजूर था। उस दिन जूनागढ़ के नवाब ने अकबर की स्वधर्मी विशाल सेना के सामने लड़ने से इंकार कर दिया और आत्मसमर्पण के लिए तैयार हो गया। उसने नवानगर के सेनापति वीर भानजी दाल जडेजा को वापस अपने राज्य लौट जाने को कहा। इस पर भान जी और उनके वीर राजपूत योद्धा अत्यंत क्रोधित हुए और भान जी जडेजा ने सीधे सीधे जूनागढ़ नवाब को राजपूती तेवर में कहा "क्षत्रिय युद्ध के लिए निकलता है या तो वो जीतकर लौटेगा या फिर रण भूमि में वीर गति को प्राप्त होकर"

वहा सभी वीर जानते थे की जूनागढ़ के बाद नवानगर पर आक्रमण होगा इसलिये सभी वीरो ने फैसला किया की वे बिना युद्ध किये नही लौटेंगे।

अकबर की सेना लाखो में थी और उन्होंने मजेवाड़ी गाँव के मैदान में अपना डेरा जमा रखा था। इस युद्ध में जैसाजी वजीर भी भानजी के साथ में थे। बादशाह की सेना के पास कई तोपे थी जो सबसे खतरनाक बात थी। इसीलिये जैसाजी ने भानजी को सुझाव दिया की तोपो को निष्क्रीय करना बहुत जरुरी है और कहा की ये काम आप ही कर सकते हो। अतः भान जी जाडेजा ने मुगलो के तरीके से ही कूटनीति का उपयोग करते हुए अपने चुनिंदा राजपूत योद्धाओ को साथ लेकर तोपो को निष्क्रिय करने के लिये आधी रात को धावा बोलने का निर्णय लिया। सभी योद्धा आपस में गले मिले फिर अपने इष्ट का स्मरण कर शत्रु छावनी की ओर निकल पड़े। वहॉ पहुँचकर एक एक कर तोपो में नागफनी की कीले ठोक कर उन्हें निष्क्रीय करने लगे। मुगलो को पता चलने पर बहुत संघर्ष हुआ जिसमे अनेक योद्धा घायल और वीरगती को प्राप्त हुए लेकिन सभी तोपो को निष्क्रिय करने में सफल हुए। इतने में जसा जी पूरी सेना के साथ आ गए और आधी रात को ही भीषण युद्ध शुरू हो गया।

मुगलो का नेतृत्व मिर्ज़ा खान कर रहा था। उस रात राजपूत सेना द्वारा हजारो मुगलो को काटा गया और मिर्जा खान युद्ध क्षेत्र से भाग खड़ा हुआ। सुबह तक युद्ध चला और मुग़ल सेना अपना सामान छोड़ भाग खड़ी हुयी। युद्ध में भान जी ने बहुत से मुग़ल मनसबदारो को काट डाला और हजारो मुग़ल सैनिक मारे गए।

बादशाह अकबर जो की सेना से कुछ किमी की दुरी पर था वो भी उसी सुबह अपने विश्वसनीय लोगो के साथ काठियावाड़ छोड़ भाग खड़ा हुआ।

नवानगर की सेना ने मुगलो का २० कोस तक पीछा किया और जो हाथ आये वो काटे गए। अंततः भान जी दाल जडेजा ने मजेवाड़ी में अकबर के शिविर से ५२ हाथी, ३५३० घोड़े और पालकियों को अपने कब्जे में लिया।

उस के बाद राजपूती फ़ौज सीधे जूनागढ़ गयी वहा के नवाब को कायरता के लिये सबक सिखाने के लिए। जूनागढ़ के किले के दरवाजे भी उखाड दिए गए और ये दरवाजे आज जामनगर में खम्बालिया दरवाजे के नाम से जाने जाते है जो आज भी वहा लगे हुए है।
बाद में जूनागढ़ के नवाब को शर्मिंदगी और पछतावा हुआ। उसने नवानगर महाराजा साताजी से क्षमा मांगी और दंड स्वरूप् जूनागढ़ रियासत के चुरू ,भार सहित २४ गांव और जोधपुर परगना (काठियावाड़ वाला)नवानगर रियासत को दिए।

कुछ समय बाद बदला लेने की मंशा से अकबर फिर आया और इस बार उसे "तामाचान की लड़ाई" में फिर हार का मुँह देखना पड़ा।
इस युद्ध का वर्णन गुजरात के इतिहास के बहुत से ग्रंथो में है जैसे नर पटाधर नीपजे, सौराष्ट्र नु इतिहास जिसे लिखा है शम्भूप्रसाद देसाई ने। इसके अलावा Bombay Gezzetarium published by Govt of Bombay, साथ ही विभा विलास में, यदु वन्स प्रकाश जो की मवदान जी रतनु ने लिखी है आदि में इस शौर्य गाथा का वर्णन है।

तामाचान की लड़ाई

ऊपर हमने देखा की कैसे मजेवड़ी के मैदान में सम्वत १६३३ में जाडेजा राजपुतो ने भान जी दल जाडेजा और जैसा जी वजीर के नेत्रत्व में मुग़ल लश्कर को पस्त कर दिया था |भान जी दाल जडेजा ने मजेवाड़ी में अकबर के शिविर से ५२ हाथी, ३५३० घोड़े और पालकियों को अपने कब्जे में लिया था और मुगल सेनापति मिर्जा खान तथा अकबर सौराष्ट्र से भाग खड़े हुए थे. सरदार मिर्ज़ा खान ने अहमदाबाद जाकर सूबेदार शाहबुदीन अहमद खान को बताया की किस तरह जाम साहिब की फ़ौज ने उनके लश्कर का बुरी तरह नाश कर दिया और वो अपनी जान बचाकर वहा से भाग निकला | खुद अकबर भी इस हार से बहुत नाराज था | अब मुगल सेना नवानगर को नष्ट करने के प्रयोजन पर लग गई और जल्दी ही कुछ वर्ष बाद सम्वत 1639 में शाहबुदीन ने खुरम नामके सरदार को एक प्रचंड सैन्य के साथ जामनगर पर चढाई करने के लिए भेजा |

मुग़ल सूबे का बड़ा लश्कर जामनगर(नवानगर) के ऊपर आक्रमण करने के लिए आ रहा हे ये बात जाम श्री सताजी साहिब को पता चलते ही उन्होंने जेसा वजीर और कुंवर अजाजी को एक बड़ा लश्कर लेकर उनके सामने युद्ध करने के लिए चल पडे | इस सैन्य में पाटवी कुंवर अजाजी,कुंवर जसाजी,जेसा वजीर, भाराजी, रणमलजी, वेरोजी, भानजी दल, तोगाजी सोढा ये सब भी थे | जाम साहिब सताजी अपने सेना को लेकर तमाचन के गाव के पादर मे उंड नदी ने के किनारे आके अपनी सैन्य छावनी रखी | मुग़ल फ़ौज भी सामने गोलिटा नामके गाव के पास आ कर रुक गई |

मुग़ल फ़ौज के जासूसों ने सूबेदार को कहा की जाम साहिब के लश्कर में तोपे और वीर योद्धाओ का भारी मात्रा में ज़ोर हे, इसिलिए अगर समाधान हो सके तो अच्छा रहेगा | ये बात सुनकर खुरम भी अंदर से डर गया और उसने जाम सताजी को पत्र लिखा:-
“ साहेब आप तो अनामी है, आपके सब भाई, कुंवर और उमराव भी युद्ध से पीछे हठ करे ऐसे कायर नहीं हे | हम तो बादशाह के नोकर होने की वजह से बादशाह जहा हुकुम करे वह हमको जाना पड़ता हे, उनके आदेश के कारण हम यहाँ आए हुए है, पर हमारी इज्जत रहे ये अब आपके हाथ में है |”
इस पत्र को पढ़ते ही जाम साहेब ने जेसा वजीर से सलाह मशवरा करने के बाद जवाब भेजा की “ आप लोग एक मंजिल पीछे हट जाइए” ये जवाब मिलते ही खुरम ने दुसरे दिन सुबह होते ही पड़धरी गाव की दिशा में कुच की , वो एक मंजिल पीछे हट गया | ये देखकर जाम साहिब ने जाम साहिब ने उसे कुछ पोशाक-सोगात देकर उसे कुछ किए बिना अपने लश्कर को लेकर जामनगर की और रवाना हो गए | ये देखते ही कुंवर जसाजी ने जाम साहिब से कहा की हुकुम अगर आपकी अनुमति हो तो हम यहाँ पे थोड़े दिन रुकना चाहते हे | इस बात को कबुल करके जाम साहिब ने भारोजी, महेरामनजी, भानजी दल, जेसो वजीर और तोगाजी सोढा इन सब सरदारों के साथ २०,००० के सैन्य को वह पे रुकने दिया और खुद जामनगर की तरफ रवाना हो गए | कुंवर जसाजी ने तमाचन के पादर में अपना डेरा जमकर वहा पर खाने-पीने की बड़ी मिजबानी करने की तयारी करने लगे |

कुंवर जाम श्री जसा जी


इस तरफ खुरम का जासूस ये सब देख रहा था | उसने फ़ौरन जाकर खुरम को बताया की जाम साहिब का लश्कर जामनगर जा चूका हे, यहाँ पर सिर्फ २०,००० का सैन्य हे | ये सब लोग मेजबानी में शराब की महफ़िल में व्यस्त हे, ये सही समय हे उनपे आक्रमण करने का | बाद में हम कुंवर को पकडके जाम साहिब को बोलेंगे की मजेवाडी के युद्ध में हुए हमारे नुकशान की भरपाई करो हमारा सामान वापस दो वरना हम आपके कुंवर को मुसलमान बना देंगे | इससे हमारी इज्जत भी रहेंगी और अहमदाबाद जाकर शाहबुदीन सूबेदार और बादशाह को भी खुश कर देंगे |

इस बात को सुनने के बाद खुरम तैयार होकर अपने शस्त्र के साथ हाथी पर बैठा अपनी तोपों को आगे बढाया अपने सैन्य और घुड़सवार को लेकर तमाचन की तरफ चल पड़ा |

इस बात की जाम साहिब की छावनी में किसी को भनक तक नहीं थी | वह पर सभी आनंद-प्रमोद में मस्त थे | वही परअचानक आसमान में धुल उडती देख जेसा वजीर ने अपने चुनिदा सैनिको को आदेश दिया की “ये धुल किसकी हे पता करके आओ, मुझे लगता हे इन तुर्कों ने हमसे दगा किया हे | सैनिक तुरंत खबर लेके आए की खुरम की फ़ौज हमारे तरफ आगे बढ़ रही हे | इस बात को सुनते ही जेसा वजीर ने कुंवर जसाजी को कहा की “ आप जामनगर को पधारिए हम आपके सेवक यहाँ पे युद्ध करेंगे” कुंवर जेसाजी ने जवाब दिया की “ इस समय अगर में पीठ दिखा कर चला गया तो में राजपुत नहीं रहूँगा, जितना हारना सब उपरवाले के हाथ में है, पर रणमैदान छोड़ कर चला जाना क्षात्र-धर्मं के खिलाफ है |”

कुंवर जसाजी ने ये कहेकर अपनी फ़ौज को तैयार किया और उंड नदी को पार करते हुए सामने की तरफ आ पहोचे | दोनों तरफ से तोपों और बंदुके चलने लगी और कई सैनिक मरने लगे | ये देखकर बारोट कानदासजी रोह्डीआ ने जेसा वजीर से कहा की “हे वजीर तु सब युद्ध कला जनता हे, फिर भी हमारे लोग यहाँ मर रहे है, और तू कुछ बोल क्यों नहीं रहा ? इस तरह लड़ने से हमारी जीत नहीं होगी, मेरी मानो तो हर हर महादेव का नारा बुलाकर अब केसरिया करने का वक़्त आ गया हे, अपने घोड़े पर बैठकर मुग़ल सेना से भीड़ जाओ , फिर उस तुर्कों की क्या औकाद है हम देखते ही उनका संहार कर डालेंगे” ये सुनकर जेसा वजीर और कुंवर जसाजी, भाणजी दल, मेरामणजी, भाराजी सब हर हर महादेव का नारा लगाकर केसरिया करने को तैयार हो गए | हाथ में भाले लेकर सब मुग़ल सेना से भीड़ पडे तलवारे निकल कर सबको काटने लगे चारो तरफ खून ही दिख रहा था, मांसाहारी पक्षी आसमान में दिखने लगे, पुरा रणमैदान रक्त से लाल हो गया था | इतना बड़ा राजपुतो और मुगलो के बीच में युद्ध हुआ था की देखते ही देखते वह १५,००० लाशो से रणमैदान भर गया | खुरम की फ़ौज के सैनिक डर के मारे भागने लगे | खुरम खुद अपने हाथी में से उतरकर घोड़े पर बैठ के भाग गया | जाम श्री सताजी साहिब के सैन्य ने विसामण नाम के गाव तक मुग़ल फ़ौज का मारते मारते पिछा किया | वहां से वे रुक गए जीत के ढोल बजाते हुए रणमैदान में वापस आ कर बादशाही खजाने तंबू, मुग़ल के नगारे, ३२ हाथी, सेंकडो घोड़े, तोपे, रथ आदि लेकर कुंवर जसाजी के साथ जामनगर पधारे |

इतनी सी छोटी उमर में कुंवर जसाजी का ये अदभुत पराक्रम देखकर जाम सताजी बहुत खुश हो गए | उन्होंने जेसा वजीर, महेरामणजी, भाराजी , भानजी दल तथा तोगाजी सोढा आदि सरदारों को अमूल्य भेट अर्पण की इसके साथ ही जो सैनिक युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए थे उनके परिवार को जागीर में जमीने और अमुक रमक देने का वचन दिया |

जाडेजा राजपुतो ने अपने राजा की गैरहाजरी में भी उनके सरदारों ने सूझ-बूझ का परिचय देकर और अपने से ज्यादा बड़ी मुगल फ़ौज जिससे लड़ने से भी बड़े-बड़े राजा महाराजा डरते थे उसको न केवल हराकर बल्कि रण-मैदान से भगाकर अदम्य शाहस और राजपुती शौर्य का परिचय दिया था |

भूचर मोरी का युद्ध

राजपूत कभी अपने आशरा धर्म को करने में विफल रहता है।

पूर्व गुजरात सुल्तान को बचाने के लिए अकबर की सेना के साथ लड़ा। अहमदाबाद के राजा, मुज़फ्फर शाह .. !! उन्होंने युद्ध एन खो दिया शहीद बन गया क्योंकि जूनागढ़ के नवाब ने जामनगर के जडजास को धोखा दिया ... !!

१५७२ में मुगल सम्राट अकबर ने गुजरात को गुजरात से गुजरात जीता, आखिरी सुल्तान मुजफरशाह तीसरा जो भाग गया, लेकिन काादी के पास जोताना में पकड़ा गया और जेल में भेजा गया। १५७८ में गुजरात पूर्व-सुल्तान मुजफर दिल्ली मुगल जेल से बच निकले और राजपिपला वन में गुजरात और छुपा हुआ। उन्होंने १५८३ में अपने पुराने प्रमुखों की सेना को इकट्ठा किया गुजरात पूर्व-सुल्तान मुजफर ने मुगल ने अहमदाबाद पर शासन किया और मुगल गवर्नर इटिमखान से भी जीता। उन्होंने भी जीता वडोदरा और भरूच। १५८४ में गुजरात के कमांड के तहत विशाल मुगल सेना नई मुगल गवर्नर मिर्जा अब्दुरहिमखन / मिर्जखान ने विद्रोही पूर्व सुल्तान मुजफर को हराया।

उन्होंने भाग लिया गुजरात पिछले पूर्व-सुल्तान मुजफर को गुजरात और सौराष्ट्र में १५८४-१५९२ के दौरान घूम रहा था और घूम रहा था। उन्हें लगातार मुगल सेना द्वारा पीछा किया गया था। १५९२ में घूमने वाले गुजरात पूर्व सुल्तान मुजफरशाह ने सौराष्ट्र शासकों की शरण लेने की कोशिश की लेकिन जामनगर शासक जाम सतजी को छोड़कर सभी ने इनकार कर दिया। १५९२ में जामनगर जडेजा शासक जाम छत्रसालजी / सतजी ने माफी मिजल पावर के खिलाफ पिछले पूर्व-सुल्तान मुजफ़रशाह के लिए शरण दी। गुजरात मुगल गवर्नर मिर्जा अज़ीज़ कोकाल्टाश ने जामनगर शासक जाम सतजी को गुजरात पूर्व-सुल्तान मुजफर को आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया लेकिन उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया १५९२ केशत्ररी धर्म के रूप में धर्म जामनगर शासक जाम सतजी ने अपने शरणार्थी गुजरात को मुगल सम्राट अकबर को सौंपने से इंकार कर दिया

जामनगर शासक जाम सतजी की १५९२ में सहयोगी सेनाओं में जुनागढ़ शासक डोलताखन गोरी और कथी लोमा खुमन ने भुखर मोरी-ध्रोल में धोखाधड़ी में छावनी दी। यह मानसून और बारिश थी मुगल सेना तेजी से १५९२ के श्रवण एसयूडी ६ पर विरामगाम से दीरोल में पहुंची थी।

मुगल सेना के जामनगर युद्ध गठन के साथ भयंकर लड़ाई शुरू हुई:

दाहिने तरफ साईद कासिम, नवरोज़खान, गुजरखन;

सेंटर-मिर्जा मार्हान; बाईं ओर-मुहम्मद राफी;

फ्रंट-मिर्जा अनवर में।

जामनगर साइड चीफ राजपूत योद्धाओं:

सेना प्रमुख यीसा वजीर और शासक जाम सतजी जडेजा,
महेहानजी डंजानानी,
नागाडो वज़ीर,
दह्यो लडक और भंजी दल।

भुचर मोरी ध्रोल के पास एक बड़ा सादा है। युद्ध का सबसे बड़ा दिन बिना परिणाम के पास हुआ। दोनों सेनाएं बहादुरी से लड़ीं और हजारों सैनिक मारे गए।

एक महत्वपूर्ण समय में १५९२ ईस्वी के श्रवण वाड ७ पर १ दिन के अंत में, जूनागढ़ शासक दौलतखन गोरी और कथी लोमा खुमन ने जामनगर शासक को धोखा दिया। अपने २४००० सैनिकों के साथ डॉल्तखन गोरी और लोमा खुमन ने मुगल सेना के साथ बदल दिया और शामिल हो गए। यह बड़ा झटका था जो युद्ध की संतुलन बदल गया। जनशष्टमी पर बहुत ही भयंकर लड़ाई लड़ी।


जामनगर क्राउन प्रिंस अजजी ५०० दोस्त के साथ अपने विवाह समारोह से सीधे आए। भद्रेश्वर कच्छ शासक हला मेहरामनजी अपने १४ बेटों के साथ शहीद बन गए। द्वारका तीर्थयात्रा से लौटने वाले १५०० नागा बावा ने युद्ध में बहादुरी से लड़ा। १५९२ मुगल सेना के जन्माष्टमी ने भुचर मोरी युद्ध जीता जो सौराष्ट्र इतिहास में आखिरी बड़े पैमाने पर बड़ी लड़ाई है।


शत-शत वंदन उन वीर हुतात्माओं को जिन्होंने आश्रय धर्म निभाते हुवे भूचर-मोरी के ऐतिहासिक युद्ध मे वीरगति प्राप्त की...🙏

ROHTASGARH FORT, BIHAR - IMMORTAL RAJPUTS


The Rohtas Fort is constructed on a plateau over the top of a hill with steeply rising sides. The steps directing to the fort are cut into limestone of the hill. In the past, many streams crossed the plateau and the soil was productive, which helped in easy growth of the crops, so that the inhabitants of the fort could hold out for months against any enemy besieging the fort. Thick forests and wild animals surrounded the hill providing natural barriers and dacoits provided other man-made barriers in the past. Thus the fort which was believed to be invincible, could not be taken by force but only by means of deceit.


Picturesquely situated on the outlying spur of the Kaimur Hills in Bihar, was the favourite refuge for the families and treasuries of personages like Sher Shah, Shahjahan, Nawab Mir Kasim AM and Amar Singh, brother of Kunwar Singh of Jagdishpur.

Ferista, a Persian historian, considered Rohtasgarh as the largest and strongest hill fort of India and none to compare with.


It takes around two hours from the district headquarters at Sasaram to reach the foot of the hill over which is the Rohtas Fort. The fort is situated at about 1500 feet above sea level. There are about 2000 odd limestone steps at Medha Ghat meant for the most common mode of ascent to the fort on foot at present. For the visitor they are an exhausting climb of an hour and a half. At the end of the climb, one reaches the boundary wall of the fort. A lovely waterfall is seen during the rains, which falls over the fortifications, and is mesmerizing to watch and hear from a distance. A dilapidated gate with a cupola can be seen, which is first of several provided for well-guarded entrances to the fort. From here one has to walk another mile or so before the ruins of Rohtas can be seen.

Early Period :- 


In the Harivamsa Purana it is stated that Rohita, the son of Harishchandra, had Rohitpura constructed with a view of consummation of his dominion (Buchanan, Appendix C). Even though the Fort is ascribed to have been constructed by the legendary Rohitaswa, son of the great King Harish Chandra, there are no historical remains to corroborate the existence of early kings on the fort. The oldest historical record found on the fort is an inscription which is ascribed to the 7th century, thereby implying the existence of the rule of Sasanka in the 7th century over Rohtas. The legend of Harish Chandra, king of the solar race is well known. It is believed that his son Rohitaswa spent his time in exile from the kingdom at Rohtas, and also married a local tribal lady here. The Gazetteer records that “The tradition that Rohtas was once the seat of their race lingers among the Kharwars, Oraons and the Cheros; the Kharwars call themselves suryavanshi and allege that, like Rohitaswa, they are descended from the Sun; while the Cheros claim that they held the plateau till they sallied forth for the conquest of Palamu. Similarly, the Oraons assert that Rohtasgarh originally belonged to their chiefs and was finally wrested from them by the Hindus who surprised them at night during one of their great national festivals, when the men had fallen senseless from intoxication, and only women were left to fight.”

Rock inscription of Sasankadeva :- 


About the oldest inscription from Rohtas, Dr. D R Patil has given details in his work “the Antiquarian Remains of Bihar”  as follows “the exact location of the inscription on the hillis not given by Fleet, who noticed it earliest in his well knownwork on Gupta inscriptions. The inscription is in reverse on the rock and the whole, perhaps, according to Fleet, represents a mould or matrix for casting copper seals in relief. The seal matrixis circular in shape, 4 1/4” inches in diameter, and has, in its upper smaller half a damaged figure of a recumbent bull facing to the right. In the lower bigger half is the inscription in Sanskrit, in two lines, which reads Sri-maha samanta Sasanka-devasya. Fleet’s suggestion that the Sasanka of Bengal who killed Rajyavardhana, the elder brother of King Harsha of Kannauj, is generally accepted. He assigned the inscription palaeographically to 7th century AD.”

The only records of Hindu times connected with Rohtasgarh are a few rock cut inscriptions at various places on the plateau. The first at Phulwari, dates back to 1169 AD, and refers to the construction of a road up the hill by Pratapdhavala, theNayak of Japila. Japila is evidently the modern Japla, on the opposite side of the Sone, in the district of Palamu; and Pratapdhaval appears to have been a local chief, who is also known from the inscrioptions at Tarachandi near Sasaram and at Tutla Bhawani near Tilothu. From another inscription at Rohtas, Pratapdhawal is referred to belong to the Khayaravalavansha, which survives in the present day as the tribe of Kharwars. The only other record of Hindu Rule over the Fort is an inscription atLal Darwaza, dated 1223 AD, which mentions a descendant and successor of Pratapdhavala, calle/d him like Pratapa.

Rohtas Fort under rule of Kharwar Dynasty :-


The history of Rohtas is a long and chequered one. The old texts and inscriptions found near Rohtas suggest that the fort was in the possession of the Hindu king Pratapdhavala of the Japala dynasty. Other inscriptions cite that it was ruled by the Khayarwala clan who were sovereigns of Shahabad (the area now includes Bhojpur, Buxar, Kaimur and Rohtas). The Hindu kings of Rohtas constructed a road through the jungle leading from the foothill to the plateau, did the fortifications on the jungle roads and the four gates on the four ghats. The main fortifications at the Raja Ghat and the Katauthiya Ghat can still be seen. Except from the matrix for making seals belonging to the 7th century AD king Sasanka, all other artifacts are from the time of Sher Shah Suri and onwards.

Rohtas Fort under Sher Shah Suri :- 


शेरशाह सूरी और उसके ब्राह्मण मंत्री चूड़ामणि ने धोखे से रोहतासगढ़ किले से हिन्दू शासन खत्म कर उसकी जगह मुस्लिम शासन की स्थापना की थी। सदियों से हिन्दू राजाओं के अधिपत्य में रहा सुदृढ़ रोहतासगढ़ जो पूर्वी भारत का प्रवेश द्वार था। 16 वीं सदी में मुस्लिम शासक शेरशाह सूरी ने अपने अधीन कर लिया। बंगाल के शासक इब्राहीम खान को हराकर शेरशाह सूरी पूरे बिहार और आस-पास के क्षेत्र का अधिपति बन बैठा था। शक्तिशाली बनने के बाद शेरशाह की नजर चुनार किले पर पड़ी, पर उसे हुमायूँ से हारकर बेघर होना पड़ा। हुमायूँ से हारने के बाद शेरशाह जंगलों में भटकता फिरा उसे एक सुरक्षित शरण स्थली के लिए उसे रोहतासगढ़ की याद आई उस वक्त रोहतासगढ़ पर हिन्दू राजा नृपति का अधिकार था शेरशाह को पता था कि उस हिन्दू राजा नृपति से रोहतासगढ़ जैसा सुरक्षा के लिहाज से सुदृढ़ दुर्ग युद्ध कर लेना आसान नहीं है अतः उसने अपने ब्राह्मण मंत्री चूड़ामणि से सलाह कर छल से दुर्ग हथियाने की योजना बनाई। योजनानुसार ब्राह्मण मंत्री चूड़ामणि ने रोहतासगढ़ जाकर हिन्दू राजा से संकटकाल में शेरशाह की बेगमों को शरण देने का अनुरोध किया। शरणागत की रक्षा के लिए क्षत्रिय धर्म का निर्वाहन करने को तत्पर राजपूत राजा ने उदारता दिखाते हुए बेगमों को शरण देने का अनुरोध स्वीकारा कुछ समय पहले भी दुर्दिन में शेरशाह के परिजनों को राजा ने शरण देकर अपना क्षात्र धर्म निभाया था
राजा द्वारा शरण देने का कातर अनुरोध स्वीकार करने के बाद एक के बाद  1200 पालकियों में ढेरों सैनिक पहुंचाये गए राजपूती शान ने पर्दानशीन पालकियों बेगमों की तलाशी लेना क्षात्र धर्म के विरुद्ध समझ तलाशी नहीं ली। ना किसी प्रकार का शक किया। सभी पालकियां जब भीतर पहुँच गई तब योजनानुसार स्त्री वेश में हथियारों से लैस पठान सैनिकों ने राजा को तुरंत किला खाली कर अन्यत्र चले जाने की चेतावनी दे डाली।

यह देख राजा अवाक् था, पर अब किले में सैनिक संख्या पठान छल शक्ति के पक्ष में थी। इस तरह शरणागत की रक्षा का धर्म निभाने वाला शरणदाता स्वयं शरणार्थी बन गया और शरणार्थी किले का अब असली मालिक बन गया। इस तरह शेरशाह सूरी और उसके ब्राह्मण मंत्री चूड़ामणि ने धोखे से रोहतासगढ़ किले से हिन्दू शासन खत्म कर उसकी जगह मुस्लिम शासन की स्थापना कर दी। जो किले पर अंग्रेजी शासन स्थापित होने के बाद खत्म हुआ।

In 1539 AD, the Fort of Rohtas passed out of the hands of the Hindu kings into those of Sher Shah Suri. She Shah Suri had just lost the Fort at Chunar in a fight with the Mughal emperor Humayun and was desperate to gain a foothold for himself. Sher Shah requested the ruler of Rohtas that he wanted to leave his women, children and treasure in the safety of the fort, while he was away fighting in Bengal. The king agreed and the first few palanquins had women and children. But the later ones contained fierce Afghan soldiers, who captured Rohtas and forced the Hindu king to flee. Buchanan mentions that the Fort belonged to a hindu Brahmin Raja, Chandra Ban, when it was wrested by Sher Shah. During the reign of Sher Shah, 10000-armed men guarded the fort.

Haibat Khan, a trustworthy soldier of Sher Shah built the Jami Masjid in 1543 AD, which lies to the west of the fort. It is made of white sandstone and comprises of three domes. There is a mausoleum of Habsh Khan, the daroga or the Superintendent of works of Sher Shah.



Rohtas Fort under Raja Man Singh :- 

Kachhwaha clan of Rajputs, descendants of Kush (son of Ram), or some of his immediate offspring, migrated from Koshal/Ayodhya & erected the celebrated castle of Rohtas, or Rohitas. Several generations later, a scion of the same dynasty, Raja Nal, migrated westward along the Sone.


In 1558 AD, Raja Man Singh, Akbar’s Hindu General, ruled Rohtas. As the Governor of Bengal and Bihar, he made Rohtas his headquarters in view of its inaccessibility and other natural defenses. He built a splendid palace for himself, renovated the rest of the fort, cleared up the ponds and made gardens in Persian style. The palace was constructed in a north-south axis, with its entrance to the west with barracks for soldiers in front. The fort is still in a fairly good condition.



The hill fort of Rohtasgarh was also the HQ of Raja Man Singh of Amber when he was Viceroy of Bengal and Bihar. He also undertook considerable repair work of this historic Bihar fort.

Rohtas during later Mughals :-  

After the death of Man Singh, the fort came under the jurisdiction of the office of the Emperor’s wazir from where the governors were appointed. In 1621 AD, the Prince Khurram revolted against his father Jahangir and took refuge at Rohtas. The guardian of the fort, Saiyyad Mubarak handed over the keys of Rohtas to the prince. Khurram once again came to Rohtas for safety when he tried to win Avadh, but lost the battle of Kampat. His son Murad Baksh was born to his wife Mumtaz Mahal. During Aurangzeb’s reign the fort was used as a detention camp for those under trial and housing prisoners sentenced for life.

Rohtas in British times :-  

In 1763 AD, in the Battle of Udhwa Nala, the Nawab of Bihar and Bengal, Mir Kasim, lost to the British and fled with his family to Rohtas. But he was not able to hide at the fort. Finally the Diwan of Rohtas, Shahmal handed it over to the British Captain Goddard. During his two-month stay at the fort, the Captain destroyed the storeroom and many of the fortifications. Goddard left, keeping some guards in charge of the fort, but they too left after a year.

There was peace at the fort for the next 100 years or so, which was at last broken at the time of the First War of independence in 1857. Amar Singh, the brother of Kunwar Singh, together with his companions took refuge here. There were many encounters with the British where the latter were at a disadvantage, for the jungles and the tribals in them were of great help to the Indian soldiers. Finally, after a long drawn out military blockade and many clashes, the British overcame the Indians.

The Fort thereafter lied neglected and was forgotten by the mainstream tourists.

Structures within the Fort Palace :-

Hathiya Pol :- 


The main gate is known as the Hathiya Pol or the Elephant Gate, named after the number of figures of the elephants, which decorate it. It is the largest of the gates and was made in 1597 AD.


Aina Mahal :- 


The Aina Mahal, the palace of the chief wife of Man Singh, is in the middle of the palace.


Takhte Badshahi :- 


The most expansive structure within the palace is however theTakhte Badshahi, where Man Singh himself resided. It is a four-storied building, with a cupola on top. There is an assembly hall in the second floor and a gallery resting on strong, engraved stone pillars. The third floor has a tiny cupola, which opens into the women’ quarters. From the fourth floor one can get a bird’s eye view of the surrounding area.


Baradari :-  The residential quarters of Man Singh were on the first floor, which was connected to the ladies’ rooms via a gateway in the east. An assembly hall, probably the Diwan-i-Khas or the hall of private audience is a little towards the west of Baradari or the hall of public audience. The hall is decorated with etchings of flowers and leaves, and lies on similarly decorated pillars.

Structures within the  Fort premises:-

Outside the palace grounds are the buildings of Jami Masjid, Habsh Khan’s Mausoleum and the Makbara of Shufi Sultan. The beautiful stucco style, with the cupola resting on pillars reminds of the Rajputana style where the domed structures are known as chhatris. This style had not been used in Bengal and Bihar earlier but its emergence at Rohtas was not surprising as more than half the fort’s guardians came from Rajputana.

Ganesh Temple :- 


About a distance of half a kilometer to the west of Man Singh’s Palace is a Ganesh temple. The sanctum of the temple faces two porch-ways. The tall imposing superstructure corresponds to the temples of Rajputana (Rajashtan), especially of Ossian near Jodhpur built in the 8th century AD and the Mira Bai temple of the 17th century AD at Chittor.

Hanging House or Fansi Ghar :- 


Further towards west, some construction must have taken place although there is no written evidence of what it was. The locals call it the Hanging House, as the fall from here is a straight 1500 ft down with no obstacles on the way. Locals have a story to tell about this place that this spot is the mouth of a cave, where a Muslim fakir (mendicant) is buried. It is said that he was thrown from here into the valley three times. In spite of being bound hand and foot, the fakir escaped unhurt each time. Ultimately he was buried in the cave.

Rohtasan or Chaurasan Temple :- 


About a mile to the northeast of the Palace are the ruins of two temples. One is the Rohtasan, a temple of Lord Shiva. Iconoclasts probably destroyed the roof and the main mandap, which housed the sacred lingam. Now only 84 steps are left, which lead to the temple believed to be in existence since the times of the Great Puranic King Harishchandra. The domes crest the Devi Mandir. The idol of the deity was missing from here, though the rest of the building is in good condition.

The Gazetteer of Shahabad mentions that

 “ The most picturesquely situated of all these temples is the Rohtasan, or the temple of Rohitaswa. It stands on the edge of the precipice on a small peak at the north-eastern corner of the plateauand is approached by a long flight of eighty four steps; little of this temple now remains and the tower and mandapa which once formed part of it have long since disappeared. The image of Rohitaswa is said to have been worshipped here until it was destroyed by the iconoclastic zeal of Aurangzib, who erected a small brick mosque just behind it : the latter was a wretched building which has recently been demolished.


Close by the temple of Rohitaswa stands the shrine sacred to his father Harish Chandra, a graceful building consisting of a small pillared hall covered with five domes, the image formerly worshipped here was also removed by Aurangzeb.”

Singh Dwar :- The Singh Dwar is the main gate of the Fort and is located at a distance of about 6 kms from the Fort Palace. This is the only jeepable ascent to the Fort Palace. The Ghat is called Kathautea Ghat, owing to the peculiar shape which resembles a container. The access from this point is very narrow with deep valleys on both sides of the small connecting road. It is also very picturesque.