Wednesday, July 11, 2018

Naga sadhus


" कैलासरण शिवा चंद्रमौलि  पणीन्द्र माठा मुकुति जलाली कारुण्य सिंधु भावा दुखा हारी तुजावीणा शम्भो माजा कोना तारी " 




नागा साधु - सम्पूर्ण जानकारी और इतिहास..
नागा शब्द बहुत पुराना है। भारत में नागवंश और नागा जाति का इतिहास भी बहुत पुराना है।
 
भारत में नागालैंड नाम का एक स्थान है। भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में ही नागवंशी, नागा जाति और दसनामी संप्रदाय के लोग रहते आए हैं। भारत का एक संप्रदाय नाथ संप्रदाय भी दसनामी संप्रदाय से ही संबंध रखता है। दरअसल शैव पंथ से बहुत सारे संन्यासी पंथों और परंपराओं की शुरुआत मानी गई है।

नागा शब्द का अर्थ : 'नागा' शब्द की उत्पत्ति के बारे में कुछ विद्वानों की मान्यता है कि यह शब्द संस्कृत के 'नागा' शब्द से निकला है, जिसका अर्थ 'पहाड़' से होता है और इस पर रहने वाले लोग 'पहाड़ी' या 'नागा' कहलाते हैं। कच्छारी भाषा में 'नागा' से तात्पर्य 'एक युवा बहादुर लड़ाकू व्यक्ति' से लिया जाता है।

 'नागा' का अर्थ 'नंगे' रहने वाले व्यक्तियों से भी है। उत्तरी-पूर्वी भारत में रहने वाले इन लोगों को भी 'नागा' कहते हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि नागा संन्यासियों के अखाड़े आदि शंकराचार्य के पहले भी थे, लेकिन उस समय इन्हें अखाड़ा नाम से नहीं पुकारा जाता था। इन्हें बेड़ा अर्थात साधुओं का जत्था कहा जाता था। पहले अखाड़ा शब्द का चलन नहीं था। साधुओं के जत्थे में पीर और तद्वीर होते थे। अखाड़ा शब्द का चलन मुगलकाल से शुरू हुआ। कुछ अन्य इतिहासकार यह मानते हैं कि भारत में नागा संप्रदाय की परंपरा प्रागैतिहासिक काल से शुरू हुई है। सिंधु की घाटी में स्थित विख्यात मोहनजोदड़ो की खुदाई में पाई जाने वाली मुद्रा तथा उस पर पशुओं द्वारा पूजित एवं दिगंबर रूप में विराजमान पशुपति की प्रतिमा इस बात का प्रमाण है कि वैदिक साहित्य में भी ऐसे जटाधारी तपस्वियों का वर्णन मिलता है। भगवान शिव इन तपस्वियों के अराध्य देव हैं। 
सिकंदर महान के साथ आए यूनानियों को अनेक दिगंबर साधुओं के दर्शन हुए थे। बुद्ध और महावीर भी इन्हीं साधुओं के दो प्रधान संघों के अधिनायक थे। जैन धर्म में जो दिगंबर साधु होते हैं और हिंदुओ में जो नागा संन्यासी हैं वे दोनों ही एक ही परंपरा से निकले हुए हैं। इस देश में नागा जाति भी होती है जो नागालैंड में रहती है।


नागा अभिवादन मंत्र :ॐ नमो शिवाय। 




नागा का ईश्वर :शिव के भक्त नागा साधु शिव के अलावा किसी को भी नहीं मानते।

हिन्दू संत धारा में नागा साधुओं का राष्ट्र और धर्म की रक्षा हेतु अहम योगदान रहा है। कालांतर में ये साधु योद्धा होते हैं।

सभी साधुओं में नागा साधुओं को सबसे ज्यादा हैरत और अचरज से देखा जाता है। यह आम जनता के बीच एक कौतुहल का विषय होते है। यदि आप यह सोचते है की नागा साधु बनना बड़ा आसान है तो यह आपकी गलत सोच है।

नागा साधुओं की ट्रेनिंग सेना के कमांडों की ट्रेनिंग से भी ज्यादा कठिन होती है, उन्हें दीक्षा लेने से पूर्व खुद का पिंड दान और श्राद्ध तर्पण करना पड़ता है। पुराने समय में अखाड़ों में नाग साधुओं को मठो की रक्षा के लिए एक योद्धा की तरह तैयार किया जाता था। 

आपको यह जानकार आश्चर्य होगा की मठों और मंदिरों की रक्षा के लिए इतिहास में नाग साधुओं ने कई लड़ाइयां भी लड़ी है। आज इस लेख में हम आपको नागा साधुओं के बारे में उनके इतिहास से लेकर उनकी दीक्षा तक सब-कुछ विस्तारपूर्वक बताएंगे।

नाग साधुओं के नियम :- 
वर्त्तमान में भारत में नागा साधुओं के कई प्रमुख अखाड़े है। वैसे तो हर अखाड़े में दीक्षा के कुछ अपने नियम होते हैं, लेकिन कुछ कायदे ऐसे भी होते हैं, जो सभी दशनामी अखाड़ों में एक जैसे होते हैं।


1- ब्रह्मचर्य का पालन- कोई भी आम आदमी जब नागा साधु बनने के लिए आता है, तो सबसे पहले उसके स्वयं पर नियंत्रण की स्थिति को परखा जाता है। उससे लंबे समय ब्रह्मचर्य का पालन करवाया जाता है। इस प्रक्रिया में सिर्फ दैहिक ब्रह्मचर्य ही नहीं, मानसिक नियंत्रण को भी परखा जाता है। 

अचानक किसी को दीक्षा नहीं दी जाती। पहले यह तय किया जाता है कि दीक्षा लेने वाला पूरी तरह से वासना और इच्छाओं से मुक्त हो चुका है अथवा नहीं।
2- सेवा कार्य- ब्रह्मचर्य व्रत के साथ ही दीक्षा लेने वाले के मन में सेवाभाव होना भी आवश्यक है।

यह माना जाता है कि जो भी साधु बन रहा है, वह धर्म, राष्ट्र और मानव समाज की सेवा और रक्षा के लिए बन रहा है। ऐसे में कई बार दीक्षा लेने वाले साधु को अपने गुरु और वरिष्ठ साधुओं की सेवा भी करनी पड़ती है। दीक्षा के समय ब्रह्मचारियों की अवस्था प्राय: 17-18 से कम की नहीं रहा करती और....

र वे ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य वर्ण के ही हुआ करते हैं।
3- खुद का पिंडदान और श्राद्ध- दीक्षा के पहले जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य है, वह है खुद का श्राद्ध और पिंडदान करना। इस प्रक्रिया में साधक स्वयं को अपने परिवार और समाज के लिए मृत मानकर अपने हाथों से अपना श्राद्ध कर्म करता है।

इसके बाद ही उसे गुरु द्वारा नया नाम और नई पहचान दी जाती है।
4- वस्त्रों का त्याग- नागा साधुओं को वस्त्र धारण करने की भी अनुमति नहीं होती। अगर वस्त्र धारण करने हों, तो सिर्फ गेरुए रंग के वस्त्र ही नागा साधु पहन सकते हैं।

अगर वस्त्र धारण करने हों, तो सिर्फ गवह भी सिर्फ एक वस्त्र, इससे अधिक गेरुए वस्त्र नागा साधु धारण नहीं कर सकते। नागा साधुओं को शरीर पर सिर्फ भस्म लगाने की अनुमति होती है। भस्म का ही श्रंगार किया जाता है।

5- भस्म और रुद्राक्ष- नागा साधुओं को विभूति एवं रुद्राक्ष धारण करना पड़ता है, शिखा सूत्र (चोटी) का परित्याग करना होता है। नागा साधु को अपने सारे बालों का त्याग करना होता है। वह सिर पर शिखा भी नहीं रख सकता या फिर संपूर्ण जटा को धारण करना होता है। 

6- एक समय भोजन- नागा साधुओं को रात और दिन मिलाकर केवल एक ही समय भोजन करना होता है। वो भोजन भी भिक्षा मांग कर लिया गया होता है। एक नागा साधु को अधिक से अधिक सात घरों से भिक्षा लेने का अधिकार है। अगर सातों घरों से कोई भिक्षा ना मिले, तो उसे भूखा रहना पड़ता है।


7- केवल पृथ्वी पर ही सोना- नागा साधु सोने के लिए पलंग, खाट या अन्य किसी साधन का उपयोग नहीं कर सकता। यहां तक कि नागा साधुओं को गादी पर सोने की भी मनाही होती है। नागा साधु केवल पृथ्वी पर ही सोते हैं। यह बहुत ही कठोर नियम है, जिसका पालन हर नागा साधु को करना पड़ता है।

8-मंत्र में आस्था-दीक्षा के बाद गुरु से मिले गुरुमंत्र में ही उसे संपूर्ण आस्था रखनी होती है। उसकी भविष्य की सारी तपस्या इसी गुरु मंत्र पर आधारित होती है
9-अन्य नियम- बस्ती से बाहर निवास करना, किसी को प्रणाम न करना और न किसी की निंदा करना तथा केवल संन्यासी को ही प्रणाम करना आदि।

नागा साधु बनने की प्रक्रिया :-
नाग साधु बनने के लिए इतनी कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है कि शायद कोई आम आदमी इसे पार ही नहीं कर पाए। नागाओं को सेना की तरह तैयार किया जाता है। उनको आम दुनिया से अलग और विशेष बनना होता है। इस प्रक्रिया में सालों लग जाते हैं। जानिए 

तहकीकात- जब भी कोई व्यक्ति साधु बनने के लिए किसी अखाड़े में जाता है, तो उसे कभी सीधे-सीधे अखाड़े में शामिल नहीं किया जाता। अखाड़ा अपने स्तर पर ये तहकीकात करता है कि वह साधु क्यों बनना चाहता है? उस व्यक्ति की तथा उसके परिवार की संपूर्ण पृष्ठभूमि देखी जाती है।

अगर अखाड़े को ये लगता है कि वह साधु बनने के लिए सही व्यक्ति है, तो ही उसे अखाड़े में प्रवेश की अनुमति मिलती है। अखाड़े में प्रवेश के बाद उसके ब्रह्मचर्य की परीक्षा ली जाती है। इसमें 6 महीने से 12 साल तक लग जाते हैं। 

अगर अखाड़ा और उस व्यक्ति का गुरु यह निश्चित कर लें कि वह दीक्षा देने लायक हो चुका है फिर उसे अगली प्रक्रिया में ले जाया जाता है। 
महापुरुष- अगर व्यक्ति ब्रह्मचर्य का पालन करने की परीक्षा से सफलतापूर्वक गुजर जाता है, तो उसे ब्रह्मचारी से महापुरुष बनाया जाता है। 

उसके पांच गुरु बनाए जाते हैं। ये पांच गुरु पंच देव या पंच परमेश्वर (शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश) होते हैं। इन्हें भस्म, भगवा, रूद्राक्ष आदि चीजें दी जाती हैं। यह नागाओं के प्रतीक और आभूषण होते हैं। 
अवधूत- महापुरुष के बाद नागाओं को अवधूत बनाया जाता है। 

इसमें सबसे पहले उसे अपने बाल कटवाने होते हैं।इसके लिए अखाड़ा परिषद की रसीद कटती है।अवधूत रूप में दीक्षा लेने वाले को खुद का तर्पण और पिंडदान करता है।पिंडदान अखाड़े के पुरोहित करवाते हैं।संसार और परिवार के लिए मृत होजाते हैं।इनका एक ही उद्देश्य होता है सनातन और वैदिक धर्म की रक्षा 

लिंग भंग- इस प्रक्रिया के लिए उन्हें 24 घंटे नागा रूप में अखाड़े के ध्वज के नीचे बिना कुछ खाए-पीए खड़ा होना पड़ता है। इस दौरान उनके कंधे पर एक दंड और हाथों में मिट्टी का बर्तन होता है। इस दौरान अखाड़े के पहरेदार उन पर नजर रखे होते हैं। 

इसके बाद अखाड़े के साधु द्वारा उनके लिंग को वैदिक मंत्रों के साथ झटके देकर निष्क्रिय किया जाता है। यह कार्य भी अखाड़े के ध्वज के नीचे किया जाता है। इस प्रक्रिया के बाद वह नागा साधु बन जाता है। 

नागाओं के पद और अधिकार- नागा साधुओं के कई पद होते हैं। एक बार नागा साधु बनने के बाद उसके पद और अधिकार भी बढ़ते जाते हैं। नागा साधु के बाद महंत, श्रीमहंत, जमातिया महंत, थानापति महंत, पीर महंत, दिगंबरश्री, महामंडलेश्वर और आचार्य महामंडलेश्वर जैसे पदों तक जा सकता है। 

महिलाएं भी बनती है नाग साधू :-
वर्तमान में कई अखाड़ों मे महिलाओं को भी नागा साधू की दीक्षा दी जाती है। इनमे विदेशी महिलाओं की संख्या भी काफी है। वैसे तो महिला नागा साधू और पुरुष नाग साधू के नियम कायदे समान ही है। 

फर्क केवल इतना ही है की महिला नागा साधू को एक पिला वस्त्र लपेट केर रखना पड़ता है और यही वस्त्र पहन कर स्नान करना पड़ता है। नग्न स्नान की अनुमति नहीं है, यहाँ तक की कुम्भ मेले में भी नहीं। 

अजब-गजब है नागाओं का श्रंगार :-
श्रंगार सिर्फ महिलाओं को ही प्रिय नहीं होता, नागाओं को भी सजना-संवरना अच्छा लगता है। फर्क सिर्फ इतना है कि नागाओं की श्रंगार सामग्री, महिलाओं के सौंदर्य प्रसाधनों से बिलकुल अलग होती है। उन्हें भी अपने लुक और अपनी स्टाइल की फिक्र होती है

जितनी आम आदमी को। नागा साधु प्रेमानंद गिरि के मुताबिक नागाओं के भी अपने विशेष श्रंगार साधन हैं। ये आम दुनिया से अलग हैं, लेकिन नागाओं को प्रिय हैं। जानिए नागा साधु कैसे अपना श्रंगार करते हैं- 
भस्म- नागा साधुओं को सबसे ज्यादा प्रिय होती है भस्म। 

भगवान शिव के औघड़ रूप में भस्म रमाना सभी जानते हैं। ऐसे ही शैव संप्रदाय के साधु भी अपने आराध्य की प्रिय भस्म को अपने शरीर पर लगाते हैं। रोजाना सुबह स्नान के बाद नागा साधु सबसे पहले अपने शरीर पर भस्म रमाते हैंं। यह भस्म भी ताजी होती है। भस्म शरीर पर कपड़ों का काम करती है। 

फूल-कईं नागा साधु नियमित रूप से फूलों की मालाएं धारण करते हैं।गेंदे के फूल सबसे ज्यादा पसंद किए जाते हैं।इसका कारण है गेंदे के फूलों का अधिक समय तक ताजे बना रहना।नागा साधु गले में,हाथों पर और विशेषतौर से अपनी जटाओं में फूल लगाते हैं।हालांकि कई साधु अपने आप को फूलों से बचाते हैं।

तिलक-नागा साधु सबसे ज्यादा ध्यान अपने तिलक पर देते हैं।यह पहचान और शक्ति दोनों का प्रतीक है।रोज तिलक एक जैसा लगे,इस बात को लेकर नागा साधु बहुत सावधान रहते हैं।वे कभी अपने तिलक की शैली को बदलते नहीं है।तिलक लगाने में इतनी बारीकी से काम करते हैं कि अच्छे-अच्छे मेकअप मैन मात खा जाएं 

रुद्राक्ष- भस्म ही की तरह नागाओं को रुद्राक्ष भी बहुत प्रिय है। कहा जाता है रुद्राक्ष भगवान शिव के आंसुओं से उत्पन्न हुए हैं। यह साक्षात भगवान शिव के प्रतीक हैं। इस कारण लगभग सभी शैव साधु रुद्राक्ष की माला पहनते हैं। ये मालाएं साधारण नहीं होतीं।इन्हें बरसों तक सिद्ध किया जाता है।

ये मालाएं नागाओं के लिए आभा मंडल जैसा वातावरण पैदा करती हैं। कहते हैं कि अगर कोई नागा साधु किसी पर खुश होकर अपनी माला उसे दे दे तो उस व्यक्ति के वारे-न्यारे हो जाते हैं। 
लंगोट- आमतौर पर नागा साधु निर्वस्त्र ही होते हैं, लेकिन कई नागा साधु लंगोट धारण भी करते हैं।

इसके पीछे कई कारण हैं, जैसे भक्तों के उनके पास आने में कोई झिझक ना रहे। कई साधु हठयोग के तहत भी लंगोट धारण करते हैं- जैसे लोहे की लंगोट, चांदी की लंगोट, लकड़ी की लंगोट। यह भी एक तप की तरह होता है।

हथियार- नागाओं को सिर्फ साधु नहीं, बल्कि योद्धा माना गया है। वे युद्ध कला में माहिर, क्रोधी और बलवान शरीर के स्वामी होते हैं। अक्सर नागा साधु अपने साथ तलवार, फरसा या त्रिशूल लेकर चलते हैं। ये हथियार इनके योद्धा होने के प्रमाण तो हैं ही, साथ ही इनके लुक का भी हिस्सा हैं। 

चिमटा -नागाओं में चिमटा रखना अनिवार्य होता है। धुनि रमाने में सबसे ज्यादा काम चिमटे का ही पड़ता है।चिमटा हथियार भी है और औजार भी। ये नागाओं के व्यक्तित्व का एक अहम हिस्सा होता है। कई साधु चिमटे से ही अपने भक्तों को आशीर्वाद भी देते थे। महाराज का चिमटा लग जाए तो नैया पार हो जाए।

रत्न- कईं नागा साधु रत्नों की मालाएं भी धारण करते हैं। महंगे रत्न जैसे मूंगा, पुखराज, माणिक आदि रत्नों की मालाएं धारण करने वाले नागा कम ही होते हैं। उन्हें धन से मोह नहीं होता, लेकिन ये रत्न उनके श्रंगार का आवश्यक हिस्सा होते हैं।

जटा-जटाएं भी नागा साधुओं की सबसे बड़ी पहचान होती हैं। मोटी जटाओं की देख-रेख भी उतने ही जतन से की जाती है।काली मिट्टी से उन्हें धोया जाता है। सूर्य की रोशनी में सुखाया जाता है।कुछ फूलों से, कुछ रुद्राक्षों से तो कुछ अन्य मोतियों की मालाओं से जटाओं का श्रंगार करते हैं।

दाढ़ी-जटा की तरह दाढ़ी भी नागा साधुओं की पहचान होती है।इसकी देखरेख भी जटाओं की तरह ही होती है।नागा साधु अपनी दाढ़ी को भी पूरे जतन से साफ रखते हैं। 
पोषाक चर्म- जिस तरह भगवान शिव बाघंबर यानी शेर की खाल को वस्त्र के रूप में पहनते हैं, वैसे ही कई नागा साधु जानवरों की खाल पहनते हैं

For more knowledge- 

https://haribhakt.com/the-mysterious-world-of-great-naga-sadhus-revealed/ 







Thursday, July 5, 2018

JAMNAGAR FOUNDER JAM RAWALJI JADEJA - RANA TOGAJI SODHA - MERAMANJI HALA JI / BATTLE OF MITHOI - IMMORTAL RAJPUTS



चंद्रवंशी जडेजा राजवंश में जाम रावल नाम के महान अजेय शासक हुए,जिन्होंने अपने जीवन काल में कभी एक युद्ध भी नही हारा और पूरे सौराष्ट्र के राजाओ को हरा कर नवानगर राज्य स्थापित किया।नवानगर

राज्य की राजधानी जिससे आज जामनगर कहा जाता है, जाम रावल ने इस शहर की स्थापना विक्रमी सम्वत 1596 में श्रावण मॉस के 7 वे दिन की।

विक्रमी संवत 1606 में जाम रावल ने अपने जीवन काल का सबसे बड़ा युद्ध लड़ा जिससे मिठोई का महान युद्ध भी कहा जाता है। इस युद्ध में जाम रावल के विरुद्ध समस्त सौराष्ट्र एवं गुजरात की सेनाए लड़ी थी। जिसमे

वाला जेठवा वढेर चौहान परमार झाला वाघेला गोहिल काठी जूनागढ़ के मुस्लिम सुल्तान अपने अपने सैन्य के साथ जुड़े और मिठोई तक आकर पड़ाव डाला. अहमदाबाद के सुल्तान के द्वारा मदद के लिए140 तोप भेजने के बावजूद भी जाम रावल की सेना ने अपने तलवारों की मदद से इस युद्ध में बहादुरी से जीत हासिल की।यह युद्ध योद्धाओं के शौर्ये और बन्दूको पर तलवारो के भारी हुनर की जीत के लिए भी जाना जाता है एवं क्षत्रियों के गौरव और बहादुरी का प्रतीक है

इधर जाम रावल ने भी रिश्तेदारों भायतो को बुलाकर युद्ध की तैयारी करवाई. ध्रोल से उनके लघुबंधु ठाकोर श्री हर्ध्रोल जी भी अपनी सेना के साथ आ गये और योद्धा भी जुड़े रथ को तैयार कर माँ आशापुरा का और पितामह कृष्ण का स्मरण कर सबने सत्रु के सामने कूच

किया,दुश्मन की तोपों और भारी फ़ौज का मुकाबला करने के लिए जाम रावल ने युद्ध से पहले सलाहकारों के साथ विचार विमर्श किया।अपने सारे सामंतों को बुलाकर सलाह मशवरा किया ,वजीर नोंघंन ने सलाह दी के 3 हिस्सों में फौज को बाटकर एक को बीच मे और दो को दाये और बाये की और रखते हे जैसे ही शत्रु तोप चलाये बिचवाली टुकड़ी लेट जाये और तोप

चल जाने के बाद पीछे हटना, पीछे है जानकार वो दुबारा तोप नहीं भरेंगे और हम फायदा उठाकर हमला कर देंगे ' जाम श्री रावल जी सुनकर कहते हे की --

हु रावल जो हटु,सती तजदे पियसाधी||

होवते कलह रावल हटु,माने किम् संसार मन||

अब जीवन मरण प्रम उपरा, देवा क्रम अश्वमेघ दन||१||

अर्थात अगर मेरु पर्वत चड़ै और पृथ्वी पर सूर्य प्रकाश न दे,योगेश्वर जो योगभ्रष्ट होकर समाधी तोड़े,माँ पार्वती शंकर का साथ छोड़े तो में रावल जाम युद्ध में पीछे हटूं और फिर मै संसार में कैसे जियूं? जीवन और मृत्यु।

ईश्वर के अधीन है, हम सामने जाकर अश्वमेघ यज्ञ का फल प्राप्त करेंगे.......

बहुत सोचने के बादयह परामर्श निकला गया के युद्ध तभी जीता जा सकता है जब दुश्मन की तोपों को निष्क्रिय किया जा सके। तोपों को निष्क्रिय करने के लिए तोपों में एक निश्चित जगह खूंट घुसाने के विधि सुझाई गयी जिससे तोपें चल ही ना पाए। इस कार्य को करने के लिए एक विशाल राजपूतों की सभा बुलाई गयी, इस प्रकार की सभा को उन दिनों बीड़ू कहा जाता था। बीड़ू का एक नियम था यदि सभा में मौजूद कोई क्षत्रिये बीड़ू में राखी गयी चुनौती को नहीं कबूलता तो उस दिन की सभा में एक ब्राह्मण की बलि दी जाएगी जिसकी ब्रह्मा हत्या का पाप सभा में मजूद सभी क्षत्रियो को लगेगा। बलि से पहले बीड़ू के फरमान को ४ बार

पढ़ा गया। पहले तीन बार में किसी ने तोपों में खूंट गाड़ने

की चुनौती नहीं कबूली पर चौथी बारी में तोगा जी सोढा नाम के बहादुर राजपूत ने अन्य तीन जडेजा राजपूतो के साथ चुनौती को स्वीकारा।

तोप नष्ट करने की जिम्मेवारी लिए तोगा और 3 वीर जडेजा कुमार के साथ अनजान मुसाफिर खानपान की तलास में आये ऐसा जताकर दुश्मन के खेमे में घुस गए और एक एक कर तमाम तोपचियों को मार कर सभी एक १४० तोपों को निष्क्रिय कर आए।तोगा जी सोढा अपने समय के एक महान योद्धा थे और ऐसे कई योद्धा जाम रावल के सैन्यरत्न थे।

जब दुश्मन को पता चला के केवल ४ योद्धा आ सभी तोपों व असलाह को निष्क्रिय कर गए तो संयुक्त सेना के खेमे में हड़कम्प मच गया।केवल चार योद्धाओ की इतनी बड़ी बहादुरी देख दुशमन सेना में बेचैनी व हार के अंदेशे

का डर भर गया जब उन्होंने ने सोचा के ऐसे 150000 सैनिक अभी और है जिनका उन्हें सामना करना पड़ेगा। परिणाम स्वरुप दुश्मन ने भी बीड़ू का आयोजन किया और उसमे जाम रावल के कटे सर को लाने की चुनौती सभी क्षत्रियों के सामने रखी गयी। इस कार्य की जिम्मेवारी करसनजी झाला नामक क्षत्रिये ने ली।

करसन जी झाला भी सफ़ेद ध्वज उठाये दुश्मन के खेमे की और बढ़ चला। सफ़ेद ध्वज का अर्थ आत्मसमर्पण से होता है इसलिए करसन जी को सेना के भीतरी खेमों में आने की इजाजत मिली।करसन जी ने सेना के सामने

आत्मसमर्पण की शर्त राखी के वे केवल जाम रावल जी के सामने झुकेंगे और सन्देश पढ़ेंगे। उस सेना में मजूद हरदौल जी जो की जाम रावल के छोटे भाई थे और नवानगर के सेनापति भी थे करसन की मंशाओं को भाप गए और खुद करसन के आगे जाम रावल के रूप में खड़े हो गए। करसन ने हरदौल जी को जाम रावल समझ तुरंत उनकी गर्दन पर खंजर से हमला कर दिया जिसमे वे घायल हो गए और अंत में वीरगति को प्राप्त हुए।इस घटना के बारे में सुन जाम नरेश जी इतने क्रोधित हो उठे के उन्होंने तुरंत कारसन का सर धड़ से अलग करने के निर्देश दिए। परन्तु कारसेन जी मोके का फायदा उठा कर अपने घोड़े पर बहुत तेजी से जडेजाओ के खेमे से दूर भाग चले। रास्ते में एक सोलह साल का लड़का जिसका नाम मेरमणजी हाला ( जडेजाओ की शाख ) था, अपनी पट्टी नामक घोड़ी को सिंहं नदी के किनारे नहला रहा था। उसने अचानक एक आदमी को घोड़े पर अपनी और भागते देखा जिसके पीछे काफी सैनिक लगे हुए थे। मेरमण तुरंत परिस्तिथि को समझ गया और कारसेन के पीछे लग गया। दुश्मन के खेमे और कारसेन की स्तिथ में अभी भी काफी अंतर था। मेरमण जी ने कारसेन जी का बड़ी बहादुरी से पीछा किया के तभी एक 50 फुट चोर नाला दोनों के बीच आ गया। मेरमण जी ने नाले की चौड़ाई को देखते हुए अपनी घोड़ी पट्टी से कहा आज जडेजा वंश की हाला शाख की इज्जत तुम्हारे हाथों में है। पट्टी पचास फुट चौड़े नाले को बड़ी बहादुरी से दो बार में टॉप गयी और दूसरी और जा खड़ी हुई। मेरमण जी ने तुरंत अपने शरीर को संभाला और पट्टी पर खड़े होकर कारसेन की और पूरी ताकत से भाला फेंका।भाला सीधा कारसेन के दिल को भेद गया और वे वहीँ धराशाई हो गए।

मेरमण जी की इस बहादुरी को वह आ कर जाम रावल और हजारो जडेजा सैनिको ने देखा।जाम रावल जी कवि नही थे पर उन्होंने मेरमण की इस बहादुरी को देख कर अपने घोड़े से उतर कर देखा तो मेरमण जी की आँख जोर लगाने की वजह से बहार दिख रही थी और घोड़े के भी मुठ बेठ गए थे ये देख उनके मुह से उसके लिए कुछ अनमोल पंक्तियाँ निकली

”हाला जी तेरा हाथ बखानू के पट्टी तेरा पागला बखानू ”


जिसका अर्थ है हाला जी मैं किसकी तारीफ करू इस बहादुरी के आपके हाथों की या पट्टी घोड़ी के टांगों की मैं खुद ही इतना चकित हूँ।ये पंक्तियाँ आज भी अनेको गुजराती देश भक्ति के गानो में इस्तेमाल की जाती है और लाखों लोगों के लिए प्रेरणा की स्त्रोत बनीं। वर्षाऋतु में चले इस युद्ध में पानी के साथ लहू भी इतना बहता चला गया अनेक योद्धा अपना कौशल दिखाने लगे,शत्रु का 12 हजार सैनिक मारे गए और इधर

जाम जी के 4 हजार योद्धा काम आये, इसके बाद जाम रावल की सेना ने युद्ध में भी इसी प्रकार कर कौशल

दिखाया और संख्या में बेहद कम होने के बावजूद भी दुश्मन की संयुक्त सेना पर जीत हासिल की।लड़ाई के बाद सभी शत्रु राजा भाग गये जाम का सैन्य उनका पीछा करने लगा,भागते शत्रु का पीछा करना क्षत्रिय धर्म नही है कहकर जाम ने सेना वापिस बुलाई और जेठवा को हालार में से ,काठीओ को भादर नदी के उस पार, देदा और झाला को मछु नदी के उस पार खदेड़ा जो आजादी तक चला अपने भाई को खोने के गम में जाम रावल ने नया मुल्क जमीन न जीतने की प्रतिज्ञा ली और

सभी भायतो को 12-12गाव दिये ,आहीर को मायत्रु गाऊँ दिया और मत्वा लोगो को मत्वा गाव दिया अपने चारण को 2 गाव देकर राज्य स्थिर किया ये युद्ध इतिहास के पन्नो में अमर हो गया पर कई लोक कथाओ में आज भी जीवित है।

The Jadeja (also spelled Jhareja) is a Rajput clan who claim to be descended from the Hindu god Krishna and thus to belong to the Yaduvanshi Rajputs, who in turn form a part of the Chandravanshi (Lunar Dynasty). In v.s.1185, Jam Jadaji became king of Sama Nagar, Sindh. He had no sons. So he adopted two sons of his Younger brother Veraji; Lakhaji and Lakhiyarji. So The names of Lakhaji and Lakhiyarji were changed to Lakhaji ‘Jadeja’, means son of Jadaji. Thereafter all descendents were named ‘Jadeja’, means sons of Jadaji. This Jam Lakhaji also called Lakha Jadani, captured again Kutchchha in v.s.1203 and established his capital in “Lakhiyar Veero” named after his younger brother Lakhiyarji. Jam Lakho jadani is attributed to the surname Jadeja being adopted for all his descendants. Lakho Jadani reigned in Kutch between AD 1147–1175 and had one heir to the gaddi (throne), 

Jam Rato Raydhan, Rato means Red in Kutchi and he was so called because he used to tie a red cloth across his turban to prevent it from dislodging during battles. Jam Rato Raydhan had four sons namely, Jaedaji, Hothiji and Gajanji and Odhaji they were given the territories of Kanthkot, Gajod and Bara and main capital Lakhiyar Veero respectively in Kutch. As Othaji was the youngest and even then he was selected as occupying the main crown by GURU MAMAIYA MATANG, he ascended to the throne and the rest became a part of Bhayyat or the Brotherhood, Bhayyat is the term used for all the descendants of the royal family who own and control their own domains allocated to them within the state and adhere to the feudal system.

Over the years, there were constant skirmishes due to injustice to the elder brothers by Mama Matang that marred within these houses, until they merged in two groups of Othaji and Gajanji. The first incident among these which changed the history of Kutch is the murder of Jam Hamirji of Lakhiar Veero, chief of younger branch of Jadeja and descendant of Othaji, by Jam Rawal of Bara-tera.

Lakhaji after hard fighting with Sanghers won and consolidated both the fiefs in to an estate which he named HALAR, after the son of Gajanji of Bara and his forefather Halaji, however in doing so, he had invited a lot of bad blood within the newly claimed territory, and on one occasion, was followed by Sanghers on his visit to his paternal place of Bara in Kutch, while passing through Lakhiarviro, he had doubts about the hospitality of Hamirji and decided to pass the night in the village on the outskirts, where he was murdered by the posse that had followed him. Jam Rawal, son of Lakhaji lay the blame on Hamirji, as his father was killed within the territory of Lakhiarviro, and was intent on revenging his fathers death, over the time, on pretense of resolving the dispute between the two branches, Rawal started developing amicable relations with Hamirji, with intention to one day avenge the murder of his father, on one such visit to Lakhiarviro, he invited Jam Hamirji to Bara, and took a fake oath of Maa Aashapura, he supreme deity of Jadejas, Jam Hamirji saw a chance to settle the dispute and decided to accept the invitation, however the Women of the house sensed a bad premonition and held the young princes Khengarji and Alioji back in ahmedabad, instead Jam Hamirji visited with his trusted aide, after the meal, alone and surrounded by Jam Raawals men, he and the aide were both hacked to death by Jam Rawal, thereafter Jam Rawal usurped the throne of Kutch and reigned with supreme authority. 

The Khengarji, who was inheriting Kutch, was only 15 years old when his father was murdered. He enlisted into the army of Mahmud Begada. During one Royal Hunting party, Khengar killed a lion and saved the life of Sultan for which he was asked to name his reward, the prime ambition of Khengar was to regain Kutch and hence he asked for support to fight Jam Rawal, whereby, he was given 1000 soldiers and complete access to Morvi and given a title of Rao by the sultan Mohamad of Ahmedabad. Rao Khengar with the support of well wishers within Kutch and Morvi fought with Jam Rawal and slowly started gaining the territories of Rapar and nearby villages, as Khengar was the rightful heir to the throne he was welcomed and dissent towards Jam Rawal grew within the state of Kutch. Jam Rawal was ardent devotee of Maa Ashapura, and it is believed that the Goddess indicated Jam Rawal to leave Kutch and establish himself at Halar (Saurashtra), and that she will support him in this venture. Jam Rawal set out for Saurashtra and established himself in 1540 CE at Nawanagar. Khengar became the 1st Rao of Kutch in AD 1549 and established Bhuj as Capital.

old photo of Jamnagar taken in 1870 CE.

Thereafter Jam Rawal captured Majority of area Of Saurashtra by defeating all kings af that area and the great kingdom Nawanagar was established, the capital city was called Jamnagar, which is still a promonent city of Saurashtra. Hardholji was made king of Dhrol state by Jam Rawal in 1575 itself. Jamnagar was founded by Jam Rawal on 7th day of shrawan mounth of first quarter of v.s. 1596. 

The Jam Rawal was never defeated in his life in any battle. In v.s.1606, Jam Rawal defeated combined forces of all kings of Saurashtra and Gujrat, even Sultan of Ahmedabad supported opposition by giving 140 guns, which Jam Rawal did not possess. Even Then Jam Rawal defeated all in great battle of “Mithoi”, the site near present day refinery of reliance. In that Battle the younger brother of Jam Rawal: Hardholji became Martyr. It was the great battle; “MITHOI BATTLE”. The combined forces of all kings of saurashtra and Gujrat with support of sultan of Ahmedabad, was about 2,50,000 in numbers and army of Jam Rawal was about 1,50,000. Combined forces had 140 big guns (Cannons), none in possession of Jam Rawal's army. There was a meeting of ‘think tank’ of Jam Rawal’s army before battle started, in which it was decided that we can only win the battle if we can neutralise the power of cannons if a particular screw is fitted at specific site of the cannon, a cannon cannot fire. So a huge meeting of all armymen of Jam Rawal's army was called, in which a ‘Beedu’ was circulated in which it which it was declared "Is there any brave Rajput who can fit a screw in all the 140 big guns of combined enemy forces, That brave Rajput will be awarded with 12 villages", according to the principles of ‘beedu’, if nobody accepts that challenge, then a holi brahmin-man is killed in front of whole meeting and the ‘great sin’ of brahma-hatya applies to all the people present in the meeting. The beedu is circulated maximally four times, even then if no body accepts the challenge, a holy brahmin man is killed. Nobody took challenge till three rounds, but on the fourth circulation, one great brave man TOGAJI SODHA took up the challeng along with three JADEJA rajputs, and went to opposition camps in name of strangers, eager to know about the big-guns. With great bravery, chivalry and skills TOGAJI SODHA and his other three collegues, rendered all the 140 big guns of enemies totally useless. In later part, when enemies realised, there was fierce fight between soldiers of enemies and these brave 4 persons of Army of Jam Rawal. There were 84 wounds in body of TOGAJI SODHA ,when he came back after successfully completing the task of desarming all the 140 big guns. TOGAJI SODHA was one of the greatest war hero of that century in the world at that time, Jam Rawals army had quite few of them. There was a great panic in the camp of combined forces once they realised that only 4 soldiers of Jam Rawal's army destroyed all of our guns, then what will happen if all 1,50,000 soldiers come to fight us. As a last resort, a huge meeting of all 2,50,000 soldiers of combined forces was called and acting in same way as Jam Rawal’s strategy, they also circulated a ‘beedu’, that 'Is there any brave person in our clan who can bring the severed head of Jam Rawal?' A soldier named Karsanji took up the challenge. Karsanji went by putting a white flag on his ‘bhalo’ (spear). A white cloth suggests that ‘we want to surrender!’, so he was allowed to go to deepest part of army camp of Jam Rawal. Karsanji insisted that he will personally hand over the message to Jam Rawal only, not to anyone else. HARDHOLJI, younger brother of Jam Rawal, and also commander of Jam Rawal’s army, told Karsanji that he was Jam Rawal, give me ur message. Karsanji thoght he was Jam Rawal, and immediately took his spear and stuck a blow on Hardholji and he was severely hurt and later died and became martyr. Jam Rawal was very furious and ordered to kill Karsanji, but by that time Karsanji ran very very fast on his horse and went out of army camp. There was a young boy of 16 years name Meramanji Hala (a sub-branch of jadeja rajputs) was busy bathing his horse in river ‘SINHAN’, name of his horse was “Patti”, a female horse. He heard the noise and saw a person running away and hundreds of people shouting and running after him. He soon realised and immediately took his horse and ran after enemy soldier Karsanji. There was a great race and still some good distance was there between him and enemy. In between came river-pit some 50 feet wide, MERAMANJI asked his horse ‘patti’, that ‘this is the time of test of bravery for Hala clan of Jadeja, and it is in ur hand’. Patti jumped 50 feet river-pit and Meramanji Hala jadeja stood up on horse and threw his spear on Karsanji. The spear of Karsanji pierced through Karsanji's heart, his horse and went deep into the soil. This was the force of one of the greatest warroirs of the century Meramanji Hala Jadeja. Then thousands of soldiers and Jam Rawal came and saw the bravery, chivalry of Meramanji. Jam Rawal was never a poet, but after seeing this great bravery, there were spontaneous words from mouth of Jam Rawal ”HALAJI TARA HATH VAKHANU KE PATTI TARA PAGALA VAKHANU” (What to praise? Whether I should praise the hands of Meramanji Halaji or the legs of Patti horse! I am confused), and these words became the words of great bravery song of Gujrati Language, inspiring lacs and crores of people since centuries to fight for the Nation.


After Jam Rawal, in 1562 CE Jam Vibhaji became King of Nawanagar. After vibhaji, Jam Sataji-1 became the king of Nawanagar in 1569 CE. He was a very great warrior and defeated great Emperor Akbar of Delhi twice in the battle of Junagadh near 'Majevadi' village ground in v.s. 1633, Jam Sattaji defeated the Moghul Akbar’s army chasing Muzaffarshah-III who was defeated in a battle with moghul army. 3335 horses and 52 elephants of Moghul army were captured by Jam Sattaji’s Commander in chief Bhanji Dal. Keeping this insult in mind, Akbar attacked Jam Sattaji in 1640 once again near 'Tamachan' village (at present near Und irrigation dam) and once again Akbar’s army was badly defeated. The very very furious Akbar dismssed suba of Ahmedabd and Aziz Koko was appointed as the new governor ‘subo’ of Ahmedabad, Gujrat and Jam Sattaji was attacked with a huge army of 90,000 soldiers. In this famous battle ‘Bhucharmori’, near Dhrol, Jam Sattaji was defeated, but akbar had to compromise with this famous king Jam Sattaji just one and half year later and again Jam Sattaji was the king of Nawanagar. Even in his famous book ”Akbarnaama”, Akbar wrote "Satta was very powerful and notorious keeping an army of 30,000". After defeating Akbar's army in v.s.1633, in battle of Majevadi, Junagadh, Jam Sattaji was given the title of ”Paschim Bharat ko Badshah” by local people and local poets etc.