Thursday, September 21, 2017

BABA RAMDEV JI 'PIR' RUNICHA - IMMORTAL RAJPUTS


भारत की इस पवित्र धरती पर समय समय पर अनेक संतों, महात्माओं, वीरों व सत्पुरुषों ने जन्म लिया है। युग की आवश्कतानुसार उन्होंने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व के बल से, दुखों से त्रस्त मानवता को दुखों से मुक्ति दिला जीने की सही राह दिखाई। 15 वीं शताब्दी के आरम्भ में भारत में लुट खसोट, छुआछुत, हिंदू-मुस्लिम झगडों आदि के कारण स्थितियां बड़ी अराजक बनी हुई थी। जिसकी लाठी उसकी भैंस की स्थिति बनी हुई थी। समाज में गरीब की सुनने वाला कोई नहीं था। छुआछुत की भावना चरम सीमा पर थी।



बाबा रामदेवजी का अवतरण विक्रम स. 1409 में हुआ | चैत्र सुदी पञ्चमी सोमवार को इनका जन्म हुआ था, किन्तु लोक मानस में भाद्रपद सुदी दि्वतीया ‘बाबा री बीज’ के नाम से ख्यात है| पश्चिमी राजस्थान के पोकरण नामक प्रसिद्ध नगर के पास रुणिचा नामक स्थान में तोमर वंशीय राजपूत और रुणिचा के शासक अजमाल जी के घर चैत्र शुक्ला पंचमी, सोमवार, वि.स. 1409 को बाबा रामदेव पीर अवतरित हुए। जिन्होंने लोक में व्याप्त अत्याचार, वैर-द्वेष, छुआछुत का विरोध कर अछुतोद्धार का सफल आन्दोलन चलाया। बाबा रामदेवजी मध्यकाल की अराजकता में मानवीय मूल्यों के लिए संघर्ष करने वाले अद्भुत करुणा पुरुष हैं| उनके पूर्वजों का दिल्ली पर शासन था | तंवर अनंगपाल दिल्ली के अंतिम तंवर (तंवर, तुंवर अथवा तोमर एक ही शब्द के विभिन्न रूप हैं) सम्राट थे | वे दिल्ली छोड़कर ‘नराणा’ गाँव में आकर रहने लगे जो वर्तमान समय में जयपुर जिले में स्थित है | इसी के आसपास का क्षेत्र आजकल ‘तंवरावटी’ कहलाता है |
दिल्ली के शासक निरंतर तंवरों पर हमले करते रहते थे, क्योंकि वे जानते थे कि दिल्ली के असली हकदार तंवर हैं| इसलिए तंवर रणसी अथवा रिणसी के पुत्र अजैसी (अजमाल) को वंश बचाने की समझदारी के तहत मारवाड़ की तरफ भेज दिया | वे वर्तमान बाड़मेर जिले की शिव तहसील के ‘उँडू – काशमीर’ गाँव के पश्चिम में आकर रहने लगे | अजैसी ने जिस स्थान पर गाड़ियां छोड़ी थी वह स्थान आज भी ‘गडोथळ’ (गाड़ियों का स्थान) नाम से जाना जाता है | तंवरों के दिल्ली छूटने और ग्वालियर तथा पोकरण जाने के उल्लेख ‘रामदेवजी के बधावे’ में मिलता है जो जो हरजी भाटी के नाम से प्रचलित है -

‘दिल्ली तखत सूं उतर ग्वालियर, पोढ़ी पोकरण थाई |
घर अजमल जी रै जामो पायो, गढ़ पूगळ परणाई ||’

उस कालखंड में चारों ओर अराजकता थी | लोग दल बनाकर लूटपाट करते थे, उनमें एक कुंडल का क्षत्रप बुध भाटी(राव मंझमराव के पुत्र बुध के वंशज-यह मंझमराव राव तणु का दादा था|) ‘पम्मौ’ (पेमसी) था, जो ‘पम्मौ धोरंधार’ नाम से ख्यात था | लोक आख्यानों के अनुसार ‘पम्मौ धोरंधार’ एक रात अजैसी का डेरा लूटने की नीयत से पहुंचा किन्तु उनके वैभवशाली डेरे का रूप देख कर डर गया | उसने अपनी बेटी ‘मैणादे’ की शादी अजैसी के साथ कर दी | अजैसी को आमजन अजमालजी कहकर पुकारने लगे |

अपने पिता रणसी की तरह ही अजमालजी धार्मिक व्यक्ति थे और हर बरस द्वारिकाधीश के दर्शन करने जाते थे | सब कुछ ठीक था, किन्तु उनके संतान नहीं थी| द्वारिकाधीश की कृपा से उनके दो बेटे हुए | बड़े वीरमदे और छोटे रामदे | यही रामदे लोक विख्यात बाबा रामदेव नाम से जाने जाते हैं | लोग उन्हें अवतार मानकर पूजते हैं | उन्हें ‘निकळंक देव’ और निकळंक नेजाधारी’ ‘कहकर भी पुकारते हैं | 


हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक बाबा रामदेव ने अपने अल्प जीवन के तैंतीस वर्षों में वह कार्य कर दिखाया जो सैंकड़ों वर्षों में भी होना सम्भव नहीं था। सभी प्रकार के भेद-भाव को मिटाने एवं सभी वर्गों में एकता स्थापित करने की पुनीत प्रेरणा के कारण बाबा रामदेव जहाँ हिन्दुओं के देव है तो मुस्लिम भाईयों के लिए रामसा पीर। मुस्लिम भक्त बाबा को रामसा पीर कह कर पुकारते है। वैसे भी राजस्थान के जनमानस में पांच पीरों की प्रतिष्ठा है जिनमें बाबा रामसा पीर का विशेष स्थान है।


पाबू हड्बू रामदे , माँगाळिया मेहा।
पांचू पीर पधारजौ , गोगाजी जेहा।।


उन्होंने अपने जीवन में छुआछूत का विरोध किया | उनकी भक्त डाली बाई मेघवाल थी | उन्होंने कुष्ठरोगियों की सेवा उस युग में की, जिसे सदियों बाद गांधीजी ने अपनाया | वे धार्मिक-सौहार्द्र के भी प्रतीक हैं –

‘अल्ला आदम अलख तूं, राम रहीम करीम|
गोसांई गोरक्ख तूं, नाम तेरा तसलीम ||’

मक्का से आये पांच पीरों और बाबा रामदेवजी के मिलन और सत्संग-संवाद की कथा सुप्रसिद्ध है| जनश्रुति के अनुसार मक्का के मौलवियों ने अपने पूज्य पीरों को जब बाबा की ख्याति और उनके अलौकिक चमत्कार के बारे में बताया तो वे पीर बाबा की शक्ति को परखने के लिए मक्का से रुणिचा आए। बाबा के घर जब पांचो पीर खाना खाने बैठे, तब उन्होंने बाबा से कहा की वे अपने खाने के बर्तन (सीपियाँ) मक्का ही छोड़ आए है और उनका प्रण है कि वे खाना उन सीपियों में खाते है। तब बाबा रामदेव ने उन्हें विनयपूर्वक कहा कि उनका भी प्रण है कि घर आए अतिथि को बिना भोजन कराये नहीं जाने देते और इसके साथ ही बाबा ने अलौकिक चमत्कार दिखाया। जो सीपी जिस पीर कि थी वो उसके सम्मुख रखी मिली। इस चमत्कार (परचा) से वे पीर इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने बाबा को पीरों का पीर स्वीकार किया। उन पीरों ने ही बाबा को ‘पीरों का पीर’ कहकर उपमित किया है |पीरों ने बाबा के व्यक्त्ति से प्रभावित होकर पांच पीपलियाँ लगाईं थी वह स्थान आज भी ‘पञ्च पीपली’ नाम से जाना जाता है |



तत्कालीन सामंती समाज से उनकी कभी नहीं बनी | वे बाबा के छुआछूत विरोधी गतिविधियों से बौखलाए हुए थे | बाबा रामदेव ने छुआछुत के खिलाफ कार्य कर सिर्फ दलितों का पक्ष ही नहीं लिया वरन उन्होंने दलित समाज की सेवा भी की। डाली बाई नामक एक दलित कन्या का उन्होंने अपने घर बहन-बेटी की तरह रख कर पालन-पोषण भी किया। यही कारण है आज बाबा के भक्तो में एक बहुत बड़ी संख्या दलित भक्तों की है। बाबा रामदेव पोकरण के शासक भी रहे लेकिन उन्होंने राजा बनकर नहीं अपितु जनसेवक बनकर गरीबों, दलितों, असाध्य रोगग्रस्त रोगियों व जरुरतमंदों की सेवा भी की। 

उनकी शादी के समय उनके बहनोई पूगल के सामंत ने उनकी बहन सुगनादे को पीहर नहीं भेजा| और बहन को लेने गए राईका रतना को कैद कर लिया| तब बाबा पूगल गए और बहनोई के बगीचे में रुक कर सत्संग करने लगे | पूगल के लोग उनके सदव्यक्तित्व से प्रभावित हुए | उन्होंने उनके बहनोई को समझाया और उनकी बहन को शादी में भेजने के लिए बाध्य किया | इस तरह अपने आचरण से ठाकुर व पूगलवासियों को प्रभावित कर बहन को ले आए | किंवदंतियों में पूगल के ठाकुर द्वारा गोले बरसाना और बाबा द्वारा उन्हें ध्वजा के फटकारे से वापिस पूगल पर डालने और ठाकुर द्वारा घबराकर समझोते के उल्लेख आते हैं | वस्तुतः यह भी रूपक है जिसमें पूगल के लोग ही वे गोळे हैं, जो बाबा से मिलने के बाद में पूगल के ठाकुर को समझाने जाते हैं | इस तरह पूगल गोळे के गोळे पूगल पर ही बरसते हैं |

यही नहीं उन्होंने पोकरण की जनता को भैरव नाम के एक उद्दंड राक्षक के आतंक से भी मुक्त कराया। पोकरण क्षेत्र में भूतड़ा सेठ भैरवदास ने आतंक मचा रखा था | लोगों की जमीन-जायदाद हड़पने और उनके शोषणकारी रूप के कारण आमजन उसे भैरिया राक्षस कहते थे | लोग उसके आतंक से बचने के लिए पोकरण छोड़कर दूर दूर जा बसे | जमीन जायदाद उसने हड़प ली थी, फिर वहां रहकर करते भी क्या? बाबा ने गुरु बालीनाथ के आश्रम में उसे जा दबोचा, गुरूजी के धूंणै में उसकी सारी बहियाँ जलाकर राख कर दी और उसे मारवाड़ से सिंध की तरफ निष्कासित कर दिया | उसे चेतावनी दी कि वापिस पोकरण की तरफ कदम किया तो उसकी मृत्यु निश्चित है| निकळंक नेजाधारी बाबा रामदेव जी ने इस तरह उस राक्षस (शोषक) का वध किया | प्रसिद्ध इतिहासकार मुंहता नैनसी ने भी अपने ग्रन्थ ‘‘मारवाड़ रा परगना री विगत’’ में इस घटना का जिक्र करते हुए लिखा है- भैरव राक्षस ने पोकरण नगर आतंक से सुना कर दिया था। लेकिन बाबा रामदेव के अद्भुत एवं दिव्य व्यक्तित्व के कारण राक्षस ने उनके आगे आत्म-समर्पण कर दिया था और बाद में उनकी आज्ञा अनुसार वह मारवाड़ छोड़ कर चला गया। बाबा रामदेव ने अपने जीवन काल के दौरान और समाधी लेने के बाद कई चमत्कार दिखाए। जिन्हें लोक भाषा में परचा देना कहते है। इतिहास व लोक कथाओं में बाबा द्वारा दिए ढेर सारे परचों का जिक्र है।

बाबा ने रावल मल्लीनाथ को कहकर पोकरण बसाई, जो कि भूतड़ा सेठ भैरवदास के आतंक से उजड़ चुकी थी| उनके भाई वीरमदे जी ने बाबा से बिना पूछे, उनकी अनुपस्थिति में अपनी लड़की की शादी रावल मल्लीनाथ के पोते (जगमाल के बेटे) हमीर से कर दी | बाबा को यह सम्बन्ध उचित नहीं लगा | उन्होंने पोकरण भतीजी को दहेज में देकर खुद ने पोकरण पूर्वोत्तर में जा बसे | उन्होंने अपनी बस्ती के साथ जहाँ ‘डेरा’ किया, वह जगह ‘रामडेरा’ कहलाई| यही रामडेरा कालांतर में रामदेवरा कहलाने लगा | इस स्थान का एक नाम ‘रूणीचा’ भी मिलता है | थार के रेगिस्तान में पानी की कमी जानते हुए उन्होंने एक तालाब खुदवाया जिसे आज ‘रामसरोवर’ कहा जाता है | बालू वाला स्थान होने के कारण इसमें पानी कम रुकता है, जिसे भी किंवदंतियों में जाम्भोजी ( महान संत जिन्होंने बिशनोई पंथ चलाया) का शाप कहा जाता है | जबकि जाम्भो जी बाबा से एक शताब्दी बाद में हुए हैं|


बाबा रामदेवजी ने अपने गाँव के उत्थान के लिए ‘रूणीचा’ के सेठ को दूर-दिसावर जाकर व्यावसायिक तरीका समझाया | इस तरह सेठ दिसावर जाकर दौलत कमा कर लाया और गाँव को विकसित किया | ‘ग्रामोत्थान’ की बाबा की यह दृष्टि प्रगतिशील थी | कवियों ने भी इस को परखा और कहा है –

‘रूणीचै रा सेठ कहीजो मिर्चां फिर फिर बेचौ |
दूरां रे देसां में क्यों नहीं जावो जीयो ?

इस तरह बाबा ने बनिये की डूबती हुई जहाज को तैराया | कालान्तर में इस मुहावरे में लोगों ने चमत्कृति भर दी और कहने लगे बाबा ने ‘बाणिये री डूबती जहाज तैराई’ | ऐसी ही अनेक किवदंतियाँ जुड़ती चली गई | चमत्कारों को लोक में परचा कहते हैं | ऐसे अनेक परचे लोक में प्रचलित है |

बाबा का विवाह उमरकोट रै सोढा दलैसिंह की पुत्री नेतलदे के साथ हुआ| उनके बड़े पुत्र सादा अथवा सार्दूल ने ‘ ‘सादाँ’ नामक गाँव बसाया, जहां उनकी संतति आज भी निवास कर रही है | देवराज की संतान रामदेवरा में निवास कर रही है | उनके भाई वीरमदे ने वीरमदेवरा बसाया, जो रामदेवरा के पास ही स्थित है |
बाबा ने अपने काका ‘धनरिख’ अथवा धनरूप के साथ भी सत्संगति की थी | वे नराणै में उनके वार्धक्य काल में उनके साथ रहे थे | उल्लेखनीय है कि महाराणा कुम्भा भी इनसे प्रभावित थे और उन्होंने ‘निकळंक देव मँदिर का निर्माण करवाया था | बाबा रामदेव जी को ‘पिछम धरा रा पातसाह’, ‘पिछम धणी’ इत्यादि कई नामों से पुकारा जाता है | उनके भक्तों में रावल मल्लीनाथ, उनकी राणी रूपांदे, धारू मेघवाल, जैसल, तोरल डालीबाई के नाम उल्लेखनीय है | कालान्तर में भाटी हरजी, महाराजा मानसिंह, लिखमोजी माली, विजोजी सांणी, हीरानंद माली, देवसी माली खेमो आदि के नाम आते हैं ,जिनमें हरजी भाटी सबसे प्रमुख है | उनकी उदार वाणी का रूप देखें –

सुख संपत सोरापण राखौ ,
भव दुःख दूर भगाणी |
हरजी अरज करै धणियां नै,
किरता पर कुरबाणी |’

उनके घोड़े का नाम ‘लीला’ था | राजस्थानी में लीला हरे को कहते हैं | इसलिए लोग चित्रों में घोड़े को हरा भी कर देते हैं | बरसात के दिनों में आने वाली हरी टिड्डियों को लोग ‘बाबे रा घोड़ा कह कर पुकारते हैं | विजोजी सांणीलीले घोड़े का उल्लेख इस तरह करते हैं -

‘गिर भाखर री थळवटियां घूम रेयौ असवार |
लीलो घोड़ो हांसलौ राम कंवर महाराज |

बाबा के प्रति श्रद्धा व्यक्त करता यह दोहा अत्यंत लोकप्रिय है जिसमें बाबा की उज्ज्वल, निर्मल परम्परा और उनके उज्ज्वल व्यक्तित्व के साथ ही थार धरती की पावनता व उज्ज्वलता का वयण सगाई छँद में वर्णन किया गया है -

‘धर ऊजळ धवळी धजा, निरमळ ऊजळ नीर |
राजा ऊजळ रामदे, परचा ऊजळ पीर ||

बाबा की खुद की वाणियाँ मिलती है,जो उनके कवि होने और निर्गुण सम्प्रदाय के नजदीक होने के संकेत देती है, साथ ही सूफियों की भी नजदीकी ग्रहण करती लगती है |

आखिर जन-जन की सेवा के साथ सभी को एकता का पाठ पढाते बाबा रामदेव ने भाद्रपद शुक्ला एकादशी वि.स.1442 को जीवित समाधी ले ली | बाबा से पहले उनकी शिष्या डाली बाई ने समाधी ली | लोक आख्यानो आता है कि बाबा से आठ दिन बाद में साँखला हड़बूजी ने भी समाधी ले ली थी | साँखला हड़बूजी बाबा के मौसेरे भाई के रूप में ख्यात है | मारवाड़ के पाँचों पीरों में इन दोनों की ख्याति दुनिया जानती है | कवियों ने कहा है –

‘ बड़े पीर रामदे बाबा , गाँव रुणीचा काशी काबा |
छुआछूत शोषण को मेटा, जीवन भर दुखियों से भेंटा||
ग्रामोत्थान के सूत्र सिखाए, करुणा के जल कण बरसाए|
आज जगत ईश्वर सम पूजे, चहुँ दिस में जैकारे गूंजे ||

आज भी बाबा रामदेव के भक्त दूर दूर से रुणिचा उनके दर्शनार्थ और अराधना करने आते है। हर साल लगने वाले मेले में लाखों की तादात में जुटी उनके भक्तो की भीड़ से उनकी महत्ता व उनके प्रति जन समुदाय की श्रद्धा का आंकलन आसानी से किया जा सकता है।


बाबा रामदेव के दर्शनार्थ जोधपुर से बस व रेल द्वारा पहुंचा जा सकता है। रुणिचा नामक यह स्थान भारत द्वारा परमाणु बम परीक्षण के लिए विश्व प्रसिद्ध व चर्चित पोकरण नामक के स्थान के पास है। रुणिचा में बाबा के समाधी स्थल पर प्राचीन तालाब के पास भव्य मंदिर बना है, जहाँ हजारों श्रद्धालु अपने दुःख निवारण की आस लिए नित्य बाबा को नमन करने आते है व लाभान्वित होते है। बाबा का यह मंदिर सामाजिक समरसता और गंगा जमुनी संस्कृति का जीवंत उदाहरण है।



Baba Ramdev ji is a folk deity and a Tanwar-Rajput of Rajasthan in India, who is considered an incarnation of lord Krishna. He is worshipped by each community especially in Rajasthan. Muslims worship him as Ramshah Pir. He is said to have had miraculous powers, and his fame reached far and wide and was confirmed by Peers of Mecca. Baba Ramdevji is a saint of the fourteenth century who devoted his life for the upliftment of the downtrodden. He is often depicted on a horseback. His is worshipped by the Hindus and Muslims. The five Peers from Mecca came to test Baba Ramdev’s powers and after being convinced, paid their homage to him. Since then Muslims venerate him as Ram Shah Peer or Ramapeer. Several Rajasthani fairs and festivals are held to commemorate him.


In Rajasthan Meghwal's chief deity is Baba Ramdevji. Baba Ramdevji believed in the equality of all human beings, be they high or low, rich or poor. He helped the down-trodden by granting them their wishes.


Birth of lord Baba Ramdevji
The king of Pokran or Pokhran, a city and a municipality located in Jaisalmer district in the Indian state of Rajasthan, had no sons. His name was Ajmal and his wife, Rani Mainade, was the daughter of the king of Jaisalmer. The king Ajmal was the devotee of lord Krishna. Once day the king was on a tour of his kingdom. On his tour, he met a few farmers who were going to sow seeds. On seeing the king, they began to return back to their homes. The king surprised and asked farmers the reason for their behavior. The farmers told the king that they believed that seeing a barren king's face while on their way to their fields may cause their crops to fail, and therefore they wanted to return to their homes. King Ajmal became very sad on hearing this. Being a devotee of lord Krishna, the king decided to go to the Lord's palace in Dwarika.


When he reached Dwarka he started to pray Lord Krishna in front of Krishna’s idol. The idol in the temple, which obviously would not reply as it was made of a stone. He got angry and he threw a dried laddu at the head of the idol. The priest of the temple, considering the king to be mad advised him that if he really wanted to meet lord Krishna he would have to jump into the sea to meet the lord. The king dived into the sea to meet the Lord, not caring for his life that he will be drowned or even die. He saw the Golden Dwarka in the sea and also saw Lord Shree Krishna. Pleased at the king's dedication and faith, the Lord granted him a boon. He granted him his wish for a son and gave him a flower, but the king wanted a son like none other then the Lord himself in which case Krishna had no alternative but to take birth himself. Lord Krishna gave him another flower and promised that he will take birth at the appropriate time as his younger son. Lord Krishna also told him the names of his sons, older one as Viramdev and younger son as Ramdev. After ten months the queen gave birth to a son. He was named ‘Viramdev’. Then on Thursday in the year 1405A.D, Lord Krishna arrived in the form of an infant. This infant was named Ramdev.


A large fair is held in Ramdevra attended by thousands of devotees from far and wide. It is held from Bhadon Sudi 2 (Beej) to 11 (Ekadashi) (in the months August to September). They pay their homage by singing psalms and devotional songs in praise of Baba Ramdev. Baba Ramdevji took samadhi on Bhadrapada Shukla Ekadashi at the age of 33 years. Dalibai, his dedicated follower is also buried near his grave.

No comments:

Post a Comment