Tuesday, August 21, 2018

1857 REBELLION LEADER BABU SAHEB VEER KUNWAR SINH - IMMORTAL RAJPUTS

▪️राज्यस्थः क्षत्रियश्चैव प्रजा धर्मेण पालयेत्।


राजपद पर स्थित क्षत्रियों को उचित है कि वह धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करे।


▪️धर्मेणैव जयं काङ्क्षेदधर्मं परिवर्जये।


धर्मपूर्वक ही विजय की इच्छा करे, अधर्म को भली भांति त्याग दे।


"Vijay Kriti Stambh" located on d bank of d ‘Surahi River’ in Kayamnagar of Bhojpur(Bihar).

While crossing Ganga at Balia, Douglas's army opened fire which severely injured Kunwar's left wrist. The fear of excessive blood loss and infection due to bullet injury, 80 year old Kunwar unsheathed his sword and cut his hand himself and offered it to Ma Ganga as tribute. The amputation caused a lot of blood loss which contributed to his rapidly deteriorating health. Even in those circumstances, he primed for yet another battle against Captain LeGrand. This was his last one, fought on 23 and 24th April 1858 against the British near Jagdishpur, and he emerged victorious, but was heavily wounded. 


He brought down the British flag from Jagdishpur Fort and unfurled his flag. He passed away three days later because of his wounds but before dying he hoisted his flag and proclaimed independence.

Babu Saheb veer kunwar singh at Babu Kunwar Singh Smriti Sangrahalay, Bhojpur, Bihar

He died a free man.

अस्सी वर्षों की उम्र में जागा जोश पुराना था।

सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था॥

It's an epitome of d bravery of a 80 Years Old Freedom Fighter "Babu Veer Kunwar Singh". It was at Sheopur Ghat that the hero of 1857 drew his sword and cut off his hand after being injured by the bullets of the British forces..... There are four such Vijay Stambhs in the memory of Babu Kunwar Singh in Bhojpur district - Kayam Nagar, Bibiganj, Buzurg & Sheopur Ghat.

(Vīr Kunwar Siṃha indeed followed क्षत्रिय धर्म।)
But Veer Kunwar Singh never got his due.... 

भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के हीरो रहे जगदीशपुर के बाबू वीर कुंवर सिंह को एक बेजोड़ व्यक्तित्व के रूप में जाना जाता है जो 80 वर्ष की उम्र में भी लड़ने तथा विजय हासिल करने का माद्दा रखते थे. अपने ढलते उम्र और बिगड़ते सेहत के बावजूद भी उन्होंने कभी भी अंग्रेजों के सामने घुटने नहीं टेके बल्कि उनका डटकर सामना किया.



दो दिन पहले कांग्रेस नेता शशी थरूर राजपूतों पर तंज कसते हुए कह रहे थें कि अंग्रेजों के समय में राजपूत कहां थे ?....तो थरूर साहब राजपूत 1000 वर्षो तक जिस तरह मुसलमान आक्रांतो से लड़ते रहें,उसी तरह वें अंग्रेजो से भी पुरे देश में लड़ते रहें।बेहतर होगा कि आप इतिहास को अच्छी तरह से अध्ययन करें।आज मैं 1857 की क्रांति में बिहार के राजपूतों के योगदान पर चर्चा करूंगा।
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बिहार के शाहाबाद (भोजपुर) जिले के जगदीशपुर गांव में जन्मे कुंवर सिंह का जन्म 1777 में प्रसिद्ध शासक भोज के वंशजों में हुआ. उनके छोटे भाई अमर सिंह, दयालु सिंह और राजपति सिंह एवं इसी खानदान के बाबू उदवंत सिंह, उमराव सिंह तथा गजराज सिंह नामी जागीरदार रहे.


बाबू कुंवर सिंह के बारे में ऐसा कहा जाता है कि वह जिला शाहाबाद की कीमती और अतिविशाल जागीरों के मालिक थे. सहृदय और लोकप्रिय कुंवर सिंह को उनके बटाईदार बहुत चाहते थे. वह अपने गांववासियों में लोकप्रिय थे ही साथ ही अंग्रेजी हुकूमत में भी उनकी अच्छी पैठ थी. कई ब्रिटिश अधिकारी उनके मित्र रह चुके थे लेकिन इस दोस्ती के कारण वह अंग्रेजनिष्ठ नहीं बने.


...1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बाबू कुंवर सिंह की भूमिका काफी महत्वपूर्ण थी. अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए हिंदू और मुसलमानों ने मिलकर कदम बढ़ाया. मंगल पाण्डे की बहादुरी ने सारे देश को अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा किया. ऐसे हालात में बाबू कुंवर सिंह ने भारतीय सैनिकों का नेतृत्व किया. उन्होंने 27 अप्रैल, 1857 को दानापुर के सिपाहियों, भोजपुरी जवानों और अन्य साथियों के साथ मिलकर आरा नगर पर कब्जा कर लिया. इस तरह कुंवर सिंह का अभियान आरा में जेल तोड़ कर कैदियों की मुक्ति तथा खजाने पर कब्जे से प्रारंभ हुआ। कुंवर सिंह ने दूसरा मोर्चा बीबीगंज में खोला जहां दो अगस्त, 1857 को अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए. जब अंग्रेजी फौज ने आरा पर हमला करने की कोशिश की तो बीबीगंज और बिहिया के जंगलों में घमासान लड़ाई हुई. बहादुर स्वतंत्रता सेनानी जगदीशपुर की ओर बढ़ गए.



अंग्रजों ने जगदीशपुर पर भयंकर गोलाबारी की. घायलों को भी फांसी पर लटका दिया. महल और दुर्ग खंडहर कर दिए. कुंवर सिंह पराजित भले हुए हों लेकिन अंग्रेजों का खत्म करने का उनका जज्बा ज्यों का त्यों था. सितंबर 1857 में वे रीवा की ओर निकल गए वहां उनकी मुलाकत नाना साहब से हुई और वे एक और जंग करने के लिए बांदा से कालपी पहुंचे लेकिन लेकिन सर कॉलिन के हाथों तात्या की हार के बाद कुंवर सिंह कालपी नहीं गए और लखनऊ आए.
बिहार में क्रांति का नेतृत्व का जगदीशपुर रियासत के राजा वीर कुंवर सिंह ने नेतृत्व किया।वह भी उस 80 वर्ष के बुढापे के उम्र में जिस उम्र में लोग लाठी का सहारा ले लेते हैं लेकिन उन्होनें तलवार का सहारा लिया था।25 जुलाई 1857 को बिहार के दानापुर के भारतीय सैनिकों ने विद्रोह कर दिया और वें सभी जगदीशपुर जाकर वीर कुंवर सिंह के सेना में शामिल हो गये।कुंवर सिंह ने सेना को संगठित कर अंग्रेजो से युद्ध किया।



.....कुंवर सिंह को साथ देने के लिए बिहार के विभिन्न क्षेत्रों से अनेक राजपूत जागीरदार और जमींदार भी आएं जिनका नाम है---पीरो परगना का तहसीलदार हरिकिशन सिंह अपने चारों भाई लक्ष्मी सिंह,अजीत सिंह, आनन्द सिंह और राधसिंह ने इस क्रांति में भाग लिया इन चारों को अंग्रेजो ने काले पानी की सजा दी थी।


.........विर कुंवर सिंह के साथ अंग्रेजों के विरूद्ध जिन राजपूतों की महत्वपुर्ण भूमिका रही उनका नाम है सासाराम के निशान सिंह चौहान ,गाजीपुर के सिधा सिंह और जोधा सिंह,रामेशर सिंह ( अंग्रेजी सेना का बागी सुबेदार ), सुन्दर सिंह (जनरल पद पर ), भजन सिंह ( चावर,भोजपुर अंग्रेजी सेना के बागी सुबेदार ) , राणा दालान सिंह (क्रांति परामर्श दाता ), जीवधन सिंह (खुमदनी ,गया का जमींदार), बिहियां कुमान का कमाण्डर लक्ष्मी सिंह (भदवर ,भोजपुर ), कान सिंह ,काशी सिंह (प्रधान सेनापति ), रणबहादुर सिंह (गाजीपुर का जमींदार ), शिवबालक सिंह (क्रांति के जनरल ),हरि सिंह हेमतपुर (भोजपुर का जमींदार )।


.......हजारा सिंह (भोजपुर-बलिया का जमींदार ),मनकुब सिंह (अंग्रेजी सेना के बागी सिपाही) ,जगमाल सिंह (बागी सिपाही ), उदति सिंह ,द्वारका सिंह , शिवधर शरण सिंह,आनन्द सिंह (घुड़सवार सेना के जनरल ), रामनारायण सिंह (बागी सिपाही ), राधे सिंह,भोला सिंह (गोला-बारूद प्रभारी ),देव सिंह ,साहिबजादा सिंह ,राम सिंह (बागी सुबेदार ),तिलक सिंह और भारू सिंह(बागी सुबेदार ), तिलक सिंह (बागी सुबेदार )।

.....इस बीच बाबू कुंवर सिंह रामगढ़ के बहादुर सिपाहियों के साथ बांदा, रीवां, आजमगढ़, बनारस, बलिया, गाजीपुर एवं गोरखपुर में विप्लव के नगाड़े बजाते रहे..18मार्च 1858 को आजमगढ के पास अतरौलिया में कुंवर सिंह के नेतृत्व में राजपूतों ने अंग्रेजो के विरूद्ध घोर युद्ध किया यह यूद्ध चार दिन तक चला 22 मार्च को अंग्रेजी सेना हार गई।उसके बाद कर्नल डेम्स के नेतृत्व में अंग्रेजी कमांडर मिलमैन की सहायता के लिए आई किंतु राजपूतों ने उसे भी पराजित कर दिया।डेम्स भागकर आजमगढ किले में छिप गया।उसके बाद बनारस पर चढाई किया गया तो इससे घबड़ाकर लार्ड कैनिंग घबड़ाकर बड़ी सेना भेज दी।6 अप्रैल को युद्ध हुआ लार्डमार्क हार कर भाग गया किंतु कुंवर सिंह ने पिछि कर उसे आजमगढ के किले में कैद कर लिया।उसे साथ देने लगर्ड आया वह भी हार गया।



जब वें गंगा पार कर जगदीशपुर आ रहे थे तो डगलस के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना पिछा करती आ गई और गोली चलाने लगा एक गोली उनके दांये हाथ में लगी विष फैलने के डर से उन्होने तलवार से अपना हाथ काट दिया।

....... उनके जगदीशपुर पहुंचने के 24 घंटे बाद ही लिग्रैण्ड के नेतृत्व में फिर अंग्रेजी सेना ने आक्रमण कर दिया।यहां पर भी 23 अप्रैल 1858 को बुरी अंग्रेजों की हार हुई। ली ग्रांड की सेना तोपों व अन्य साजो सामानों से सुसज्जित और ताजा दम थी। जबकि कुंवर सिंह की सेना अस्त्र -शस्त्रों की भारी कमी के साथ लगातार की लड़ाई से थकी मादी थी। अभी कुंवर सिंह की सेना को लड़ते - भिड़ते रहकर जगदीशपुर पहुचे 24 घंटे भी नही हुआ था। इसके बावजूद आमने-सामने के युद्ध में ली ग्रांड की सेना पराजित हो गयी।



चार्ल्स बाल की 'इन्डियन म्युटनि' में उस युद्ध में शामिल एक अंग्रेज अफसर का युद्ध का यह बयान दिया हुआ है की-------
"वास्तव में जो कुछ हुआ उसे लिखते हुए मुझे अत्यंत लज्जा आती है। लड़ाई का मैदान छोडकर हमने जंगल में भागना शुरू किया। शत्रु हमे पीछे से बराबर पीटता रहा। स्वंय ली ग्रांड को छाती में गोली लगी और वह मारा गया। 199 गोरो में से केवल 80 सैनिक ही युद्ध के भयंकर संहार से ज़िंदा बच सके। हमारे साथ के सिक्ख सैनिक हमसे आगे ही भाग गये थे"
22-23 अप्रैल की इस जीत के बाद जगदीशपुर में कुंवर सिंह का शासन पुन: स्थापित हो गया।उसके बाद जगदीशपुर शासन करने लगे वे पुरी तरह अजेय रहें किंतु युद्ध में इतने बुरी तरह से घायल हो गये थे कि तीन दिन बाद 26 अप्रैल 1858 को स्वर्ग सिधार गयें।अंग्रेज इतिहासकार होम्स इनकी वीरता पर मुग्धर होकर अपनी पुस्तक में लिखता है----The Old Rajput who has fought so honourabluy and so bravely against the british power died on 26 april 1858



..........वीर कुंवर सिंह के स्वर्गावास के बाद अमर सिंह गद्दी पर बैठें उन्होने भी डगलस और लगर्ड की सेना से युद्ध लड़ा।बिहिया,हातम
पुर ,दलीलपुर आदी तीनों जगह अंग्रेजो की इस तरह हराया की 15 जुन 1858 को जनरल लगर्ड को त्यागपत्र देना पड़ा।उसके बाद उसने कसम खायी की मै अमर सिंह को हराकर ही नौकरी में लौटुंगा 19 अक्टुबर को नोनुदी गांव मे फिर घोर युद्ध हुआ।अंग्रेज अमर सिंह के हाथी तक पहुंचे लेकिन वे हाथी से कुदकर निकल पड़े इसके बाद अमर सिंह का कहीं पता न चला।


.......अंग्रेजी काल में बिहार के कुछ और राजपूत वीरों ने अंग्रेजो से लोहा लिया जिनमें मुंगेर जिले गिद्धोर रियासत के राजकुमार कालिका सिंह, ठाकुर बनारसी प्रसाद सिंह इन इलाको से नन्दकुमार सिंह,श्याम सिंह ,नेमधारी सिंह तो शाहाबाद के हरिहर सिंह,सारण के प्रभुनाथ सिंह ,सारंगधर सिंह आदी हजारीबाग से रामनारायण सिंह समस्तीपुर से सत्यनारायण सिंह ,शिवपुर से नवाब सिंह आदी बहुत से बिहार के राजपूतों ने राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लिया|






अंग्रेज इतिहासकार होम्स लिखता है की-- उस बूढ़े राजपूत की जो ब्रिटिश सत्ता के साथ इतनी बहादुरी व आन के साथ लड़ा 26 अप्रैल 1858 को एक विजेता के रूप में मृत्यु हुई। एक अन्य इतिहासकार लिखता है की कुवरसिंह का व्यक्तिगत चरित्र भी अत्यंत पवित्र था, उसका जीवन परहेजगार था। प्रजा में उसका बेहद आदर- सम्मान था। युद्ध कौशल में वह अपने समय में अद्दितीय थे।




1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बिहार के वीर कुंवर सिंह के नेतृत्व में अभियान का रूट मैप । 80 वर्ष की आयु में भी, उन्होंने जगदीशपुर, बिहार से कानपुर, यूपी तक की यात्रा की। लगभग एक साल के लिए अभियान का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया और एक स्वतंत्र राज्य के स्वतंत्र नागरिक के रूप में वीरगति पायी।




बाद में एक अंग्रेज इतिहासकार ने लिखा ------
"शुक्र है वह योद्धा क्रांति के समय 80 वर्ष का वृद्ध था ॥ यदि वो नौजवान होता तो हमें 1857 ईस्वी ही में भारत छोड़ना पड़ जाता"॥
वीर सावरकर के शब्दों में-------






"""'जब कुंवर सिंह का जन्म हुआ था तब उनकी भूमि स्वतंत्र थी और जिस दिन कुंवर सिंह ने प्राण त्यागे उस दिन भी उनके किले पर स्वदेश और स्वधर्म का भगवा ध्वज लहरा रहा था,,राजपूतो के लिए इससे पुण्यतर मृत्यु और कौन सी हो सकती है??????
उसने अपने अपमान का प्रतिशोध लिया और अल्प साधनों से शक्तिशाली अंग्रेज सेना के दांत खट्टे कर दिए...श्री कुंवर सिंह की भूमिका किसी वीर काव्य के नायक स्थान पर शोभित हो सकती है,सन 1857 के क्रांतियुद्ध में कोई नेता सर्वश्रेष्ठ था तो वीर कुंवर सिंह था,युद्धकला में कोई उनकी बराबरी कर सके ऐसा कोई था ही नहीं,
क्रांति में शिवाजी के कूट युद्ध की सही सही नकल कैसे की जाए उसी अकेले ने सिद्ध किया.तांत्या टोपे और कुंवर सिंह के युद्ध चातुर्य की तुलना करें तो बाबाूू वेीर कुंवर सिंह की कूट पद्धति ही अधिक बेजोड़ थी"""
महान यौद्धा को शत शत नमन।।


उनकी जीवनी का पीडीएफ ऊपर

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