भारत की स्वतन्त्रता के लिए किसी एक परिवार, दल या क्षेत्र विशेष के लोगों ने ही बलिदान नहीं दिये। देश के कोने-कोने में ऐसे अनेक ज्ञात-अज्ञात वीर हुए हैं, जिन्होंने अंग्रेजों से युद्ध में मृत्यु तो स्वीकाOर की; पर पीछे हटना या सिर झुकाना स्वीकार नहीं किया। ऐसे ही एक बलिदानी वीर थे मध्य प्रदेश की नरसिंहगढ़ रियासत के राजकुमार कुँवर चैनसिंह।
कुंवर चैन सिंह मध्य प्रदेश में भोपाल के निकट स्थित नरसिंहगढ़ रियासत के राजकुमार थे, जो २४ जून १८२४ को अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। १८५७ के सशस्त्र स्वाधीनता संग्राम से भी लगभग ३३ वर्ष पूर्व की यह घटना कुंवर चैन सिंह को इस अंचल के पहले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में प्रतिष्ठित करती है।
सन 1818 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने भोपाल के तत्कालीन नवाब से समझौता करके सीहोर में एक हजार सैनिकों की छावनी स्थापित की। कंपनी द्वारा नियुक्त पॉलिटिकल एजेंट मैडॉक को इन फौजियों का प्रभारी बनाया गया। इस फौजी टुकड़ी का वेतन भोपाल रियासत के शाही खजाने से दिया जाता था। समझौते के तहत पॉलिटिकल एजेंट मैडॉक को भोपाल सहित नजदीकी नरसिंहगढ़, खिलचीपुर और राजगढ़ रियासत से संबंधित राजनीतिक अधिकार भी सौंप दिए गए। बाकी तो चुप रहे, लेकिन इस फैसले को नरसिंहगढ़ रियासत के युवराज कुंवर चैन सिंह ने गुलामी की निशानी मानते हुए स्वीकार नहीं किया। व्यापार के नाम पर आये धूर्त अंग्रेजों ने जब रियासतों को हड़पना शुरू किया, तो इसके विरुद्ध अनेक स्थानों पर आवाज उठने लगी। राजा लोग समय-समय पर मिलकर इस खतरे पर विचार करते थे; पर ऐसे राजाओं को अंग्रेज और अधिक परेशान करते थे। उन्होंने हर राज्य में कुछ दरबारी खरीद लिये थे, जो उन्हें सब सूचना देते थे।
नरसिंहगढ़ पर भी अंग्रेजों की गिद्ध दृष्टि थी। उन्होंने कुँवर चैनसिंह को उसे अंग्रेजों को सौंपने को कहा; पर चैनसिंह ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। तब अंग्रेजों ने आनन्दराव बख्शी और रूपराम वोहरा नामक दो मन्त्रियों को फोड़ लिया। एक बार इन्दौर के होल्कर राजा ने सब राजाओं की बैठक बुलाई। चैनसिंह भी उसमें गये थे। यह सूचना दोनों विश्वासघाती मन्त्रियों ने अंग्रेजों तक पहुँचा दी। उस समय जनरल मेंढाक ब्रिटिश शासन की ओर से राजनीतिक एजेण्ट नियुक्त था। यह पता चलने पर कुंवर चैन सिंह ने इन दोनों को मार दिया। मंत्री रूपराम के भाई ने इसकी की शिकायत कलकत्ता स्थित गवर्नर जनरल से की, जिसके निर्देश पर पॉलिटिकल एजेंट मैडॉक ने कुंवर चैन सिंह को भोपाल के नजदीक बैरसिया में एक बैठक के लिए बुलाया। बैठक में मैडॉक ने कुंवर चैन सिंह को हत्या के अभियोग से बचाने के लिए दो शर्तें रखीं। पहली शर्त थी कि नरसिंहगढ़ रियासत, अंग्रेजों की अधीनता स्वीकारे। दूसरी शर्त थी कि क्षेत्र में पैदा होनेवाली अफीम की पूरी फसल सिर्फ अंग्रेजों को ही बेची जाए। कुंवर चैन सिंह द्वारा दोनों ही शर्तें ठुकरा देने पर मैडॉक ने उन्हें २४ जून १८२४ को सीहोर पहुंचने का आदेश दिया। अंग्रेजों की बदनीयती का अंदेशा होने के बाद भी कुंवर चैन सिंह नरसिंहगढ़ से अपने विश्वस्त साथी सारंगपुर निवासी हिम्मत खां और बहादुर खां सहित ४३ सैनिकों के साथ सीहोर पहुंचे। जहां इस बार उसने चैनसिंह और उनकी तलवारों की तारीफ करते हुए एक तलवार उनसे ले ली। इसके बाद उसने दूसरी तलवार की तारीफ करते हुए उसे भी लेना चाहा। चैनसिंह समझ गया कि जनरल उन्हें निःशस्त्र कर गिरफ्तार करना चाहता है।
उन्होंने आव देखा न ताव, जनरल पर हमला कर दिया। फिर क्या था, खुली लड़ाई होने लगी। पॉलिटिकल एजेंट मैडॉक और अंग्रेज सैनिकों से उनकी जमकर मुठभेड़ हुई। कुंवर चैन सिंह और उनके मुट्ठी भर विश्वस्त साथियों ने शस्त्रों से सुसज्जित अंग्रेजों की फौज से डटकर मुकाबला किया। घंटों चली लड़ाई में अंग्रेजों के तोपखाने ओर बंदूकों के सामने कुंवर चैन सिंह और उनके जांबाज लड़ाके डटे रहे।
नरसिंहगढ़ रियासत के वीर सपूत कुँवर चैनसिंह जी ने मात्र २३ वर्ष की उम्र में सन १८५७ की क्रांति से ३३ वर्ष पहले ही भारत की स्वाधीनता के लिये शंखनाद कर दिया था !
इतिहासकारों के अनुसार २४ जुलाई सन १८२४ में नरसिंहगढ़ रियासत के युवराज और परमार राजपूत वंश के कुँवर चैनसिंह ने नरसिंहगढ़ स्टेट के कुछ चुनिन्दा जागीरदरो व अपने साथी हिम्मत खां एवं बहादुर खां एवं ४३ सैनिको के साथ फिरंगियो के विरुद्ध बगावत का बिगुल बजाकर सीहोर के लोटियाबाग जहां की अंग्रेजो की छावनी थी एक निर्णायक युद्ध लड़ा और वीरता से लड़ते लड़ते वीरगति को प्राप्त हों गये। नरसिंहगढ़ स्टेट के राजपूत सरदार व ठिकानेदार जो उनके साथ पधारे थे वे भी वीरता से लड़ते-लड़ते उनके साथ शहीद हो गये।
युद्ध के दोरान कुँवर चैनसिंह ने अंग्रेजो की अष्टधातु से बनी तोप पर अपनी तलवार से प्रहार किया जिससे तलवार तोप को काटकर उसमे फंस गयी और मोके का फायदा उठाकर तोपची ने उनकी गर्दन पर तलवार का प्रहार कर दिया जिससे उनकी गर्दन रणभूमी में ही गिर गयी और उनका धड उनका घोडा नरसिंहगढ़ लेकर आ गया, कुँवर चैनसिंह सिंह जी पत्नी कुवरानी स्वरुप कँवर जी राजावत तक जब यह समाचार पंहुचा तो उन्होंने उसी दिन से अन्न को त्याग दिया एवं उस दिन के बाद से केवल पेड़-पोधो के पत्तो पर जीवन व्यतीत किया।
कुंवरानी राजावत जी ने कुँवर चैनसिंह सिंह जी की याद में परशुराम सागर के पास एक मंदिर भी बनवाया जिसे कुंवरानी जी के मंदिर के नाम से जानते है। इस मंदिर की खासियत यह है की इन प्रतिमाओ में भगवान का स्वरुप मुछों में है अर्थात कुंवरानी जी भगवान की इन मुछों वाली प्रतिमाओ में कुँवर चैनसिंह सिंह जी का प्रतिबिम्ब देखकर उसी रूप में उनकी आराधना करती थी।
चैनसिंह के इस बलिदान की चर्चा घर-घर में फैल गयी।
उन्हें अवतारी पुरुष मान कर आज भी ग्राम देवता के रूप में पूजा जाता है। घातक बीमारियों में लोग नरसिंहगढ़ के हारबाग में बनी इनकी समाधि पर आकर एक कंकड़ रखकर मनौती मानते हैं।भारत सरकार ने भी माना शहीद।
भारत सरकार ने नरसिंहगढ़ एवं सीहोर दोनों स्थानों पर कुँवर चैन सिंह जी के स्मारक बनवाये है!
Prince Kunwar Chain Singh of Narsinghgarh (MP) who died fighting British in Sehore. Narsinghgarh was a riyasat of Umat Parmars.
The Royal family of Narsinghgarh is well connected directly and indirectly in relationship with all the important Rajput Royal families of India. The State of Narsinghgarh was carved out of the State of Rajgarh by Paras Ramji, the younger brother of the then Ruler of Rajgarh, Rawat Mohan Singhji in 1681 A. D
Rawat Paras Ramji (1681-95)
Rawat Dalel Singhji (1695)
Rawat Moti Singhji (1695-1751)
Rawat Khuman Singhji (1751-66)
Rawat Achal Singhji (1766-95)
Rawat Sobhagh Singhji (1795-1827)
Raja Hanwant Singhji (1827-73)
Raja Pratap Singhji (1873-90)
Raja Mehtab Singhji (1890-95)
Raja Arjun Singhji (1895-1924)
Maharaja Vikram Singhji (1924-57)
Maharaja Bhanu Prakash Singhji (1957)
A majestic fort privately held is in the Rajgarh district of the State of Madhya Pradesh. It is two kilometers from main Bhopal - Guna highway, and approximately 83 kilometers from Bhopal.The two kilometer road which is inside from main highway is on uphill and is made of mud and sand. Approach road to fort is steep, difficult to drive and non motorable.
The fort is said to be built nearly 300 years ago and is constructed in Mughal & Malwa style of architecture.
It is said to be third in size after Gwalior and Mandu fort in Madhya Pradesh.
It has approximate 350 rooms, 4 halls and 64 varandahs.
It is situated in a hill overlooking lake and a temple.
A Young Prince who Fight against EAST INDIA COMPANY in 1824 kunwar Chain singh ji was lived . He is considered as “Amar Shaheed of Malwa,” as told by ancestors and old peoples the raja of Narsinghgarh fought with his enemies without his head. where his cut head looks and the body follows that and kills the enemy. it is also told about him that he has such power that he had cut a top which is kept in sehore Samadhi.
At the time of British arrival in Malwa, Narsinghgarh was ruled by Rawat Sobhagh Singh, his health was fast deteriorating. British in 1818 signed a treaty with Sobhagh Singh. His son Chain Singh was not happy with this over reaching of British in their state, as his father was ill, he took administration in his own hand. His anti-british stance made him enemy of the British.
(Flag of Narsinghgarh)
Kuwar Chain Singh ji married with Kuwrani RAJAWAT ji from Thikana-Muvaliya a Royal Thikana (Jageer) of Narsinghgarh State. Kuwar Chain singh ji’s Due to illness of his Father Rawat Sobhag Singhji,Prince Chain Singhji was in charge of the administration of the State.Prince Chain Singh ji was courageous, brave and intelligent.He was a highly self-respecting person.He ruled the State with a firm hand giving justice to one and all evenly.The People of Narsinghgarh State admired him and held him in high respect.Historical evidence says Prince Chain Singhji was reluctant to acknowledge the supremacy of the East India Company. This irritated the Company and they were waiting to get to his jugular vein. In a planned murder one palace official named Vora who was returning from the palace was assassinated.
The Company held Prince Chain Singhji responsible behind the murder and asked him to leave the State and proceed to Banaras. The Prince refused to accept the murder charge and defied the Company. This was considered as rebellion by the East India Company. As a result a battle took place between Prince Chain singhji's forces and military of East India Company in 1824 at Sehore a town about 37 kilometer West of Bhopal. They tried to remove him from power which culminated in a battle near Sehore Cantonement in 1824. Kunwar Chain Singh attacked the cantt with his select few Jagirdars and men. Heavily outnumbered he laid his life fighting against ever rising British empire at a young age of 24.
Kunwar Chain Singh ji SAMADHI
His Samadhi is situated near the battlefield.He is considered as “Amar Shaheed of Malwa” and as such recognized officially by the government of Madhya Pradesh. All communities go to his Samadhi and offer prayers and seek his blessings. Himmat Khan and Bahadur Khan, Jagirdars of Dhanora of Narsinghgarh State were killed along with him. Their tombs are built near the Samadhi of Prince Chain Singh ji at Sehor.
Every Year Government of Madhya Pradesh healed a Program on 24-july called Shaheed Kunwar Chain Singh ji jayanti Samaroh, where a Procession Starts from his SAMADHI at Char-Bag Narsinghgarh.
Kunwar Chain Singh Sagar DAM
A Beautiful DAM also named to Kunwar Chain Singh SAGAR DAM by Government of M.P.The DAM is 30km from City and Reached By a Road.
Kuwrani ji-Kunwar chain Singh ji's wife
Kunwar Chain Singh ji married with Kuwrani Rajawat ji from Thikana Mualiya jageer a Royal Thikana of Narsinghgarh State just 3km away from city and forefather belongs from royal family Thikana Jhilay Jaipur. After Veergati of Shaheed Kunwar Cahin singh ji his wife Kuwrani Rajawati ji took a Life time FAST without Food only takes fruits and Make a Temple at Parsuram Sagar called “KAWRANI JI MANDIR“ for Pray to GOD.
This temple near Narsingh-Dwar or closed to chamapawat ji Temple.
Rani Lakshmi Bai of Jhansi had heard about Prince Chain Singhji's rebellious attitude towards the East India Company and the battle he fought with the Company at Sehore in 1824. She decided to approach the Narsinghgarh State for help in the first war of Independence of 1857 against the Company to which the then Ruler of Narsinghgarh agreed. But unfortunately before Narsinghgarh could render any sort of help, the Rani was surrounded by the Company forces at Gwalior and she became a martyr. After the martyrdom of Rani Lakshmi Bai,Tatya Tope her close confidant and main supporter in the first struggle for Indian Independence of 1857 came to Narsinghgarh and was clandestinely kept by the Ruler in the thick forest of Kantora just behind the Fort Palace for quite a long time till he moved to another location to carry out his struggle. Such a inspiration he was that still every year a "Guard of Honour" is given by Madhya Pradesh government at his Cenotaph.
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