Thursday, January 27, 2022

THE ALTER OF INNOCENT AND IT'S JOURNEY IN MAFIA WORLD

 


वाराणसी में जन्मे बृजेश सिंह उर्फ अरुण सिंह के पिता एक सम्पन्न इंसान थे, न दौलत की कमी थी न शोहरत की. राजनीति के क्षेत्र में इज्जत भी बहुत थी। रविंद्रनाथ सिंह हर आम पिता की तरह अपने बेटे बृजेश सिंह को भी पढ़ाई-लिखाई में अव्वल बनाकर एक अच्छा इंसान बनाना चाहते थे. बृजेश सिंह भी पिता के बताये रास्ते पर चलकर मन लगाकर पढ़ाई-लिखाई में जुट गये। साल १९८४ में बृजेश सिंह ने १२वीं की परीक्षा में शानदार रिजल्ट दिया था और फिर बीएससी करने के लिए कॉलेज में एडमिशन लिया था, लेकिन वो कहा जाता है न कि किस्मत को कभी-कभी कुछ और ही मंजूर होता है. वही हाल बृजेश सिंह के साथ हुआ। २७ अगस्त १९८४ को वाराणसी के धरहरा गांव में बृजेश सिंह के पिता रविंद्रनाथ सिंह की हत्या कर दी गई और यहीं से बृजेश सिंह के जीवन का नया अध्याय शुरू हुआ।

अपराध की दुनिया में पहला कदम


पढ़-लिखकर एक अच्छे नागरिक की राह पर जा रहा मासूम बृजेश सिंह पिता की हत्या के बाद एकदम बदल गया था। उसका मकसद और उसकी मंशा दोनों बदल गई थी। मकसद था बस पिता की हत्या का बदला लेना और मंशा थी पिता के हत्यारों को मारने के लिए कुछ भी कर गुजरने की। बृजेश सिंह के पिता की हत्या का आरोप उनके राजनीतिक प्रतिद्वंदी हरिहर सिंह और पांचू सिंह के साथियों पर लगा. वारदात के बाद से बृजेश हर दिन अपने पिता की हत्या का बदला लेने की सोचता रहा। रात-दिन काटता रहा और फिर वह दिन आया. २७ मई १९८५ को बृजेश और हरिहर का आमना-सामना हो गया और उसी दिन हरिहर की हत्या हो गई। आरोप बृजेश सिंह पर लगा और इस घटना के बाद उसपर पहला मुकदमा दर्ज हुआ। इस तरह से बृजेश सिंह अपराध की दुनिया में एंट्री कर चुका था।


९ अप्रैल १९८६ को ७ लोगों को भून दिया गोलियों से

हरिहर की हत्या करके बृजेश का बदला पूरा तो हुआ था, लेकिन अभी भी उसका मकसद अधूरा ही था क्योंकि हत्या में शामिल बाकि लोगों को भी बृजेश खून के बदले खून से हिसाब पूरा करना चाहता था। वो मौका भी आया जब ९ अप्रैल १९८६ को वाराणसी के सिकरौरा गांव में उसके पिता की हत्या में शामिल ७ लोगों की दिन दहाड़े गोलियों से भूनकर हत्या कर दी गई। इस खूनी वारदात का आरोप भी बृजेश सिंह पर लगा। इस घटना से पूरे उत्तरप्रदेश में बृजेश सिंह के चर्चे शुरू हो गए। इस घटना के बाद पहली बार बृजेश सिंह को गिरफ्तार भी किया गया था।

मासूम से माफिया का सफर


पिता की हत्या का बदला तो पूरा हो गया, लेकिन यहीं से बृजेश के जीवन का उद्देश्य बदल गया। इस एक साल में बृजेश पूरा बदल गया। सादा जीवन जीने की तरफ आगे बढ़ रहा बृजेश एक ऐसे सफर पर चल पड़ा जो सिर्फ और सिर्फ अंधेरे की तरफ ले जाने वाला था। पिता के हत्यारों को मारने के बाद बृजेश सिंह जेल चला गया। यहां त्रिवभुवन से उसकी दोस्ती हो गई. त्रिभुवन भी यूपी के नामचीन गुंडों में शामिल था। वह भी जेल में अपने किए सजा काट रहा था. बृजेश की दोस्ती उससे ऐसी हुई कि धंधे में अच्छे-बुरे दोनों काम में एक-दूसरे की मदद करने लगे। एक से मिलकर दोनों दो हुए और बाद में जेल से छूटे और अपनी पूरी गैंग बना ली. अब इसी गैंग के सहारे कोयला, शराब जैसे धंधे में उतर गए और फिर सरकारी ठेकेदारी में। धंधे में जो अड़ंगा डाले उसे किसी भी भाषा में समझा देना यह शुरुआत हो चुकी थी। धीरे-धीरे बृजेश सिंह की गैंग पूर्वांचल में चर्चा में आई और मासूम बृजेश अब माफिया बनकर पूर्वांचल में घर-घर में चर्चा का विषय बन गया।


ये कहानी बहुत ही फिल्मी है. कहानी में कोई हीरो नहीं है, दो विलेन है और दोनों की अदावत में जलता हुआ पूर्वांचल है। एक किरदार ऐसा जिसकी रगों में सियासत खून बनकर दौड़ती है और जिसने सियासत से गुंडई का साम्राज्य बनाया। तो दूसरा ऐसा जो दुश्मनों का दुश्मन है और अपने वक्त का सबसे जिगरावाला बदमाश। पहले का नाम है मुख्तार अंसारी और दूसरे का नाम बृजेश सिंह है।


मुख्तार से मुलाकात से अदावत तक


पूर्वांचल में ८० के दशक में मुख्तार अंसारी की गैंग पहले ही सक्रिय थी. पूर्वांचल में वैसे तो छोटी-बड़ी कई गैंग थीं लेकिन मुख्तार और बृजेश की गैंग आमने-सामने थी। मुख्तार अंसारी मकनु सिंह के गैंग से जुड़ा था और बृजेश साहिब सिंह गैंग से जुड़ा था। बाद में मुख्तार और बृजेश सिंह अपनी गैंग से अलग हुए और खुद की गैंग बनाकर पूर्वांचल को अपनी जागीर समझने लगे, चूंकि दोनों के धंधे एक समान थे तो खिलाफत भी बढ़ती गई और फिर एक ठेके को लेने के चक्कर में दोनों आमने-सामने आ गए। इस दौरान बृजेश सिंह ९० के दशक में अंडरवर्ल्ड डॉन के संपर्क में आया। बृजेश सिंह को दाउद इब्राहिम ने अपने जीजा इब्राहिम कासकर की हत्या का बदला लेने की जिम्मेदारी दी और १३ फरवरी १९९२ मुंबई के जेजे अस्पताल बृजेश डॉक्टर बनकर घुसा। 


१२ सितम्बर १९९२

मुंबई का जेजे अस्पताल गोलियों से थर्रा गया था। चंद मिनटों में इतनी गोलियां, इससे पहले हिन्दुस्तान में कहीं नहीं चली थीं। एके-४७ हथियार का पहली बार इस्तेमाल हुआ था और इस शूटआउट को दाऊद इब्राहिम के कहने पर पूर्वांचल के एक बदमाश बृजेश सिंह ने अंजाम दिया था। दाउद के जीजा को मारने वाले गवली गैंग के ४ लोगों पर इतनी गोलियां बरसाईं की पूरा हॉस्पिटल हिल गया। मुम्बई के लोगों पहली बार इतना कहर देखा था। इसके बाद बृजेश सिंह दाउद के और करीब आ गया, लेकिन १९९३ मुंबई बम ब्लास्ट के बाद दोनों के बीच विवाद भी हो गया और दाउद पहले ही विदेश जा चुका था और बृजेश सिंह वापस पूर्वांचल और दूसरी जगहों पर अपना विस्तार किया। 


२९ नवंबर २००५

गाजीपुर की मोहम्मदाबाद सीट से बीजेपी के विधायक कृष्णानंद राय को शाम ४ बजे गाजीपुर में ही एक क्रिकेट मैच का उद्घाटन कर वापस अपने गांव गोडउर लौटने के दौरान बसनियां चट्टी में रोका गया, उनकी गाड़ी पर एके-४७ से ४०० से ज्यादा गोलियां चलीं, आरोप था कि मुख्तार अंसारी की गैंग ने इस शूटआउट को अंजाम दिया।

इन दो वारदातों से आपको समझ आ गया होगा कि जुर्म की दुनिया में इन दोनों का कद क्या था। लेकिन ऐसा नहीं था कि दोनों शुरुआत से ही गुंडे थे. दोनों अच्छे परिवार से थे, लेकिन एक को बदले की नीयत ने तो दूसरे को रसूख के नशे ने पूर्वांचल का गैंगस्टर बना दिया।


ये अखबार देखिए.. इसमें छपी खबर एक नसंहार के बारे में बयां करती है जिसे ९ अप्रैल १९८६ को सिकरौरा गांव में अंजाम दिया गया. ये बृजेश सिंह का बदला था, अपने पिता के कातिलों को उसने ढूंढकर मारा था। रघुनाथ यादव, लुल्लुर सिंह, पांचू और राजेश के साथ ७ लोगों की हत्या की गई. बृजेश के पिता का कत्ल २७ अगस्त १९८४ को आपसी रंजिश के चलते हुआ। एक साल बाद बृजेश ने सबसे पहले हत्या में शामिल हरिहर सिंह को २७ मई १९८५ को मारा और फिर सिकरौरा में ७ लोगों को मारा और जेल चला गया।


दूसरी तरफ मुख्तार अंसारी, ८० के दशक में छात्र राजनीति में कूदा. मुख़्तार अंसारी के दादा डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी स्वतंत्रता सेनानी थे और इंडियन नेशनल कांग्रेस और मुस्लिम लीग के अध्यक्ष रह चुके थे जो जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के संस्थापक भी रहे।


पिता सुभानुल्लाह कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे, नाना ब्रिगेडियर उस्मान नौशेरा की लड़ाई में देश के लिए शहीद हुए। दोनों बड़े भाई सियासत में हैं, एक भाई सिबाकातुल्लाह मोहम्मदाबाद सीट से विधायक रह चुके हैं तो दूसरे भाई अफजाल अंसारी गाजीपुर से सांसद हैं।

गाजीपुर के नामचीन परिवार से ताल्लुक रखनेवाले मुख्तार अंसारी ने १९८४ में बीए की डिग्री हासिल की और फिर मखनू सिंह गैंग में शामिल हो गया। मखनू सिंह गैंग की टक्कर साहिब सिंह गैंग से होती थी और इसी दौरान १९८८ में मुख्तार ने पहले मंडी परिषद के ठेकेदार सच्चिदानंद राय को मारा और फिर माफिया त्रिभुवन सिंह के कांस्टेबल भाई राजेंद्र सिंह को मौत के घाट उतार दिया।


उधर बृजेश जेल जा चुका था। जहां उसकी मुलाकात त्रिभुवन सिंह से हुई. जुर्म की दुनिया में दाखिल हो चुके बृजेश को त्रिभुवन की शह मिली और वो सीधे मुख्तार से दुश्मनी लेने लगा। मुख्तार अंसारी का सरकारी ठेकों पर दबदबा था, पीडब्लूडी हो, कोयले का ठेका हो या फिर रेलवे और शराब का ठेका, गाजीपुर, बनारस और जौनपुर में उसी का सिक्का चलता था जिसे अब २४ साल का बृजेश सिंह चैलेंज करने लगा था।

९० के दशक में मुख्तार ने राजनीति का रुख किया, बृजेश के साथ अदावत जारी था. दोनों गैंग कई बार आमने-सामने आए। ये वो रंजिश थी जो ४ दशकों तक चलने वाली थी।

एक तरफ सियासत से संरक्षण हासिल कर के मुख्तार अपनी गुंडई के बल पर पूर्वांचल में सरकारी ठेकों पर अपनी मुहर लगाता रहा तो दूसरी तरफ बृजेश सिंह ने मुंबई में उस शूटआउट को अंजाम दिया, जिसकी दहक को पूर्वांचल में भी महसूस किया गया।


अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम के बहनोई की हत्या अरुण गवली गैंग ने की तो दाऊद ने बृजेश सिंह को बहनोई की मौत का बदला लेने के लिए भेजा. और बृजेश सिंह ने १२ सितम्बर १९९२ को जेजे शूटआउट को अंजाम दिया।

इस शूटआउट के साथ ही पूर्वांचल का ये इकलौता डॉन था जो दाऊद को अपना दोस्त कहता था और जिसके ऊपर मकोका यानी महाराष्ट्र कंट्रोल ऑफ ऑर्गनाइज्ड क्राइम एक्ट लगा, टाडा यानी टेररिस्ट एंड डिसरप्टिव एक्टिविटीज एक्ट का मुकदमा चला. मुख्तार को दाऊद के सहारे आंख दिखाना अब ज्यादा आसान हो चला था।

मुख्तार और बृजेश की दुश्मनी में कई जानें गईं, कारोबारी मारे गए, गुंडे बदमाशों के साथ खाकी भी निशाने पर आई लेकिन अब वो वक्त आनेवाला था जब इस दुश्मनी में खादी को भी मौत का स्वाद चखना था।

१९९३ में मुंबई में सिलसिलेवार धमाके हुए और दाऊद मुल्क छोड़कर भाग गया. बृजेश ने भी दाऊद से नाता तोड़ लिया। जुर्म की दुनिया में बृजेश की पकड़ ढ़ीली ज़रूर पड़ी थी लेकिन मुख्तार के आगे उसकी अकड़ वैसी ही थी।


मुख्तार और बृजेश सिंह में गैंगवार


मुख्तार समय रहते राजनीति में आ चुका था, इसलिए उसकी राह आसान हो गई थी। १९९५ में मुख्तार विधायक बन गया था और बृजेश सिंह अभी तक गैंगवार में ही उलझा हुआ था। मुख्तार और बृजेश सिंह में सांप और नेवले जैसी दुश्मनी हो चुकी थी।  

अब तक पूर्वांचल के तीन जिलों में गुक्टा टैक्स वसूलने वाला माफिया मुख्तार अंसारी साल १९९६ में बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर मऊ विधानसभा सीट से जीत कर लखनऊ पहुंचा. अब प्रदेश का सिस्टम सीधे उसके हाथों में था, और बृजेश सिंह के लिए मुसीबतों वाले दिन शुरू होने वाले थे।

राजनीतिक रसूख का फायदा उठाकर मुख्तार ने पुलिस की मदद से एक के बाद एक मामले बृजेश सिंह पर लदवा दिए थे। बृजेश के खिलाफ वाराणसी के बलुआ समेत कैंट, धानापुर, सकलडीहा, चेतगंज में मामले दर्ज होते चले गए। इसके अलावा गाजीपुर के सैदपुर, भांवरकोल, गुजरात के अहमदाबाद, और महाराष्ट्र से लेकर पश्चिम बंगाल तक बृजेश के खिलाफ मुकदमे दर्ज होते गए। लेकिन ऐसा नहीं था बृजेश दबता जा रहा था, बल्कि इस दौरान बृजेश ने अपना कारोबारी सिंडिकेट यूपी से लेकर बिहार और झारखंड और यहां तक कि महाराष्ट्र में फैला लिया था।


उधर बृजेश सिंह को अब राजनीतिक रूप से कमी महसूस होने लगी। इस दौरान बृजेश सिंह के चचेरे भाई सतीश सिंह की हत्या हो गई और इसका आरोप मुख्तार पर लगा। २००२ की गर्मियों में गाजीपुर के उसरीचट्टी में बृजेश सिंह और मुख्तार गैंग का आमना-सामना हुआ। दोनों तरफ से खूब गोलियां बरसीं, इस मुठभेड़ में मुख्तार जख्मी हुआ और इस गैंगवार में खबर उड़ी कि बृजेश मारा गया। मुख्तार की गोली ने बृजेश सिंह का खात्मा कर दिया, हालांकि लाश की शिनाख्त नहीं हो पाई थी। 

महीनों तक हवा में यही खबर रही कि बृजेश सिंह मारा जा चुका है और अबकी बार मऊ से निर्दलीय विधायक मुख्तार के सामने एक ही चुनौती थी बीजेपी नेता कृष्णानंद राय, जिन्होंने साल 2002 में मोहम्मदाबाद सीट से मुख्तार के बड़े भाई को हरा दिया, फिर कुछ दिन बाद राजनीतिक जमीन तलाशते हुए बृजेश सिंह बीजेपी विधायक कृष्णानंद राय के संपर्क में आया, लेकिन इसका ज्यादा फायदा वह नहीं उठा पाया। क्योंकि २००५ में मुख्तार गैंग ने कृष्णानंद राय और उसके ६ लोगों दो दिन-दहाड़े गोलियों से भूनकर हत्या कर दी। मुख्तार को खबर मिली कि बृजेश सिंह जिंदा है और कृष्णानंद राय से उसने हाथ मिला लिया। इसके बाद जो हुआ वो आने वाले कई सालों तक दुनिया के किसी हिस्से में किसी राजनेता के साथ नहीं हुआ।

२९ नवंबर २००५ को मुख्तार अंसारी की गैंग ने कृष्णानंद राय समेत 7 लोगों को एके-४७ से ४०० से ज्यादा गोलियां चलाकर मार दिया, उन सातों की डेडबॉडी से ६९ गोलियां निकलीं। इस हत्याकांड में मुख्तार अंसारी के साथ उसका भाई अफजाल अंसारी और मुन्ना बजरंगी समेत ७ लोगों पर आरोप लगे।


कृष्णानंद राय की हत्या से पहले मऊ में दंगे भड़के थे, कई लोगों की जान चली गई थी. मुख्तार अंसारी मऊ सदर की सीट से विधायक था और वो खुद माफिया स्टाइल में गाड़ी के ऊपर बैठकर मऊ की सड़कों पर दंगों के बाद निकला था। आरोप लगा कि मुख्तार अंसारी ने ही दंगे भड़काए और राजनीतिक प्रेशर में मुख्तार ने सरेंडर कर दिया।

जिस वक्त कृष्णानंद राय की हत्या हुई, मुख्तार जेल में था लेकिन राय के परिवार ने आरोप लगाया कि जेल से ही पूरी प्लानिंग की गई।

कृष्णानंद राय को एसटीएफ ने पहले ही वॉर्निंग दी थी कि उन पर जान का खतरा है, लेकिन उस दिन वो अपनी बुलेट प्रूफ कार में नहीं थे। हत्या के बाद आडवाणी, वाजपेयी, राजनाथ सिंह, कल्याण सिंह ने सीबीआई जांच की पुरजोर तरीके से मांग उठाई। वहीं गाजीपुर के एसपी भजनी राम मीणा ने केस छोड़ दिया। मामला सीबीसीआईडी को गया लेकिन सीबीसीआईडी ने भी ६ महीने बाद राजनीतिक दबाव का हवाला देकर केस छोड़ दिया। आखिर में साल २००६ में हाईकोर्ट के आदेश पर सीबीआई ने कृष्णानंद राय केस को अपने हाथ में लिया।

सात साल तक खोजती रही यूपी पुलिस

२००५ में कृष्णानंद राय की हत्या के बाद बृजेश सिंह यूपी छोड़ कर फरार हो गया। इसके बाद सालों तक पुलिस बृजेश सिंह को पकड़ने के लिए छापे मारती रही, लेकिन पुलिस के हाथ खाली ही रहे। सात साल तक बृजेश सिंह ओडिशा में नाम और पहचान छिपाकर एक सफेदपोश जिंदगी जीता रहा। पुलिस ने बृजेश का सुराग बताने के लिए ५ लाख रुपये का इनाम भी रखा था।


ये वो दौर था जब मुख्तार अंसारी के परिवार का सियासी दबदबा गाजीपुर, मऊ, आज़मगढ़, बलिया और वाराणसी तक था और बृजेश सिंह से लिए अंसारी के सामने खड़ा हो पाना मुश्किल था। बृजेश पूर्वांचल से गायब हो चुका था और साल २००८ तक २४ साल में उसकी क्राइम फाइल मोटी तो हो चुकी थी लेकिन पुलिस के पास उसकी सिर्फ एक ही तस्वीर थी। इस तस्वीर पर भी यकीन नहीं था कि ये उसी की है। 

बृजेश सिंह की जेल यात्रा

इधर, बृजेश के जाते ही पूर्वांचल में मुख्तार का साम्राज्य बढ़ता गया, हालांकि इस घटना के बाद मुख्तार को गिरफ्तार कर लिया गया। उधर, २००८ में बृजेश को भी गिरफ्तार कर लिया। 

दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल से एसीपी संजीव को बृजेश के पीछे लगाया गया और जनवरी २००८ में पता चला कि बृजेश भुवनेश्वर से कोलकाता का सफर कर रहा है। जाल बिछाकर दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने बृजेश सिंह को एक मॉल की पार्किंग में गिरफ्तार कर लिया। बृजेश ने अपना हुलिया बदला था, नाम बदलकर अरुण सिंह रख लिया था, पासपोर्ट भी अरुण सिंह के नाम का था और तो और उड़ीसा में एक रियल स्टेट की कंपनी भी चला रहा था। तब से लेकर अब तक दोनों अलग-अलग जेल में बंद हैं।


बृजेश ने समझी पॉलिटिक्स की पावर


इस दौरान बृजेश सिंह अंडर ग्राउंड हो गया। वो कहां था किसी को पता नहीं था लेकिन बृजेश सिंह को अब पॉलिटिक्स की पावर का अंदाजा हो गया था और अब वो अपनी राजनीतिक पैठ को बढ़ाने की कोशिशों में लगा था। उधर कृष्णानंद राय हत्याकांड में मुख्य गवाह शशिकांत राय की भी २००६ में रहस्यमयी हालात में मौत हो गई, शशिकांत ने शूटआउट के आरोपियों मुन्ना बजरंगी, अंगद राय और गोरा राय की पहचान की थी। बाद में पुलिसिया जांच में शशिकांत की मौत को खुदकुशी करार दे दिया गया. पूर्वांचल में इसे ही कहते हैं डॉन मुख्तार अंसारी का जलवा।

इधर मुख्तार को साल २००८ में ही बीएसपी में फिर से वेलकम किया गया और मायावती ने अंसारी को गरीबों का मसीहा कहा।

बृजेश सिंह का राजनीतिक सफर

वाराणसी की एमएससी सीट पर बृजेश सिंह और उनका परिवार पिछले कई सालों से जीतता रहा है। ४ बार इस परिवार के खाते में यह सीट गई है. पहले दो बार बृजेश सिंह के बड़े भाई उदयनाथ सिंह फिर तीसरी बार बृजेश सिंह की पत्नी अन्नपूर्णा सिंह और मौजूदा २०१६ से खुद बृजेश सिंह एमएलसी है। हालांकि एक बार बृजेश सिंह भी कुछ समय बाद प्रगतिशील मानव समाज पार्टी का हिस्सा बन गया, २०१२ में विधान सभा चुनाव लड़ा लेकिन चंदौली की सैयदराजा विधानसभा सीट पर मिली हार ने बृजेश को बड़ा झटका दिया। लेकिन बृजेश ने अपनी राजनीतिक ताकत दिखाई और अपनी पत्नी को एमएलसी बनवा दिया। अपने भाई उदयभान सिंह उर्फ चुलबुल सिंह को एमएलसी बनवाया, उसका भतीजा भी विधायक बना और वो समय भी आया जब २०१६ में बृजेश सिंह भी एमएलसी बनकर विधान परिषद पहुंच गया।


अभी कहां हैं बृजेश सिंह?

बृजेश सिंह अभी एमएलसी हैं और वाराणसी के सेंट्रल जेल में बंद है। पिता की हत्या के बाद हुई बदले की भावना से हुई हत्या के आरोप में बृजेश सिंह कमजोर गवाही और विरोधाभासी होने के कारण और सबूतों के अभाव में ३२ साल बाद २०१८ में स्थानीय अदालत से बरी हो गया। २०१८ के शपध पत्र के अनुसार अभी भी बृजेश सिंह पर ११ मुकदमे चल रहे हैं. इन्हीं कई केसों में वह जेल में है।

साल २००५ से ही मुख्तार अंसारी जेल में हैं, समय समय पर पेरोल पर बाहर आते हैं लेकिन उनकी जेल बदलती रहती है। वहीं २००८ से ही बृजेश भी जेल में ही है लेकिन ऐसा नहीं है कि दोनों की दुश्मनी राजनीति में आ जाने से ख़त्म हो गई। ना तो उनकी दुश्मनी खत्म हुई और ना ही गुंडई।

४ मई २०१३ बृजेश सिंह के खास अजय खलनायक और उसकी पत्नी पर हमला हुआ. अजय खलनायक को कई गोलियां लगीं और पत्नी को भी एक गोली लगी. इसके बाद ३ जुलाई २०१३ को बृजेश सिंह के चचेरे भाई सतीश सिंह की बनारस के चौबेपुर थानाक्षेत्र में गोलियों से भूनकर हत्या कर दी गई, आरोप मुख्तार पर लगे।


तब बृजेश ने कहा था - 'अजय खलनायक पर हमले के बाद अगर पुलिस ने अपराधियों को गिरफ्तार कर लिया होता तो सतीश की हत्या न होती, लेकिन उसे कानून पर पूरा भरोसा है. उम्मीद है पुलिस ही उसके परिवार को न्याय दिलाएगी'।

कानून को अपने हाथ की कठपुतली माननेवाले और क्राइम की काली दुनिया में तमाम जुर्म अपने नाम दर्ज करानेवाले, कानून पर भरोसा करते हैं। मुख्तार ने भी कभी ऐसा ही बयान दिया था और बृजेश ने भी ऐसा ही बयान दिया. वैसे पिछले कई सालों से पूर्वांचल में शांति है, कोई गैंगवार नहीं हुई है, लेकिन ये कहना गलत होगा कि दोनों का दबदबा कम हुआ। दोनों पर लगे केस एक एक कर के खारिज हो रहे हैं और कभी भी वो कानून की नजर में पाक साफ साबित होकर वापस आ सकते हैं और यकीन जानिए वर्चस्व की ये जंग आगे भी जारी रहने वाली है।





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