Sunday, July 3, 2022

वाणीका श्रृंङ्गार ही सच्चा श्रृंङ्गार | भाग - ५

कबहुँ मन बिश्राम न मान्यो।

निसिदिन भ्रमत बिसारि सहज सुख, जहँ तहँ इंद्रिन तान्यो।।

जदपि विषय-सँग सह्मो दुसह दुख, विषम जाल अरूझान्यो।

तदपि  न  तजत  मूढ़   ममताबस, जानतहूँ  नहिं   जान्यो।।

जनम  अनेक  किये  नाना  बिधि  करम-कीच  चित  सान्यो।

होइ   न   बिमल   बिबेक-नीर-बिनु, वेद   पुरान   बखान्यो।।

निज  हित नाथ  पिता  गुरु  हारिसों  हरषि  हदै नहिं आन्यो।

तुलसीदास  कब तृषा  जाय सर  खनतहिं  जनम सिरान्यो।।



केयूराणि न भूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वला न स्न्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालङ्कृता मूध्र्र्दजाः।

वाण्येका समलक्ङरोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम्।।

प्रायः मनुष्य समाजमें आदर, मान-सम्मान चाहता है। सम्मान पाने के लिए वह शारीर का शृङ्गार आदि भी करता है। अनेक आभूषण, सुन्दर वेशभूषा धारण करता है, किंतु यदि वाणी में कड़ुवाहट है, तीखापन है तो कोई भी शृङ्गार मानुष को आदर तथा स्नेह नहीं दिला सकता। वाणी की कटुता उससे तिरस्कार और उपेक्षा का पात्र बना देती है।

बातचीत में मधुरता न हो, बोलने के तौर-तरीके में कटुता हो तो अनेक प्रकार के आभूषणों से सुसज्जित मनुष्य को किसीसे भी आदरपूर्ण-व्यहवार की आशा नहीं करनी चाहिये। मीठा बोलनेसे  ही बदले में मीठा व्यहवार मिलता है।

सुन्दर बाजूबंद, चाँदनी-सा चमकीला मोतियों का हार, सुवासित जलका स्न्नान, चन्दनका लेप, पुष्पहार, केशों का सुन्दर अवगुण्ठन आदि सभी शृङ्गार-प्रसाधन मनुष्य के  शरीर की ऐसी शोभा के कारण अवश्य बन सकते हैं, जिन्हें देखकर इन गहनों को धारण करनेवाला शायद अपनेको ऊँचा मानने लगे, अहम्मनय हो जाये, किंतु ऐसे अहंकार का हेतु वह शृङ्गार उसे समाजमें शोभास्पद स्थान नही दिला सकता। अतः इन मूल्यवान् रत्नोंको सच्चा आभूषण नही कह सकते। इन आभूषणोंकी चमक-दमक नश्वर है, इनका कोई मूल्य नहीं।

मनुष्यका सच्चा आभूषण तो मधुर वाणी ही है। यदि व्यक्ति सुनृतावाक्सम्पन्न है तो उसे अन्य किसी भी आभूषण की आवश्यकता नहीं है। हितकर, मधुर, सत्य एवं प्रिय वाणी ही उसे सब प्रकार से भूषित कर देती है। अतः प्रत्येक मनुष्यके लिये उचित है कि वह वाणी में मिठास लाने का प्रयत्न करे।



No comments:

Post a Comment