Friday, June 18, 2021

THE GREATEST MILITARY COMMANDER OF HIS TIMES MIRZA MAHARAJA SAWAI MAAN SINGH KACHAWA - IMMORTAL RAJPUTS

https://youtu.be/_5jWSPOPpfA

Who Fought 123 wars in his life in which 77 Big Wars he won by fighting as Leader.

To begin with his campaign of Gujrat from 1629 V.S. To 1630 V.S.

In which he Defeated King Of Gujrat Mahmud Shah In Battle Of Ahmedabad,

Defeated Sher Khan Fouladi at battle of Idar & Deesa.

Defeated Ibrahim Husain Mirza at Battle of Sarnal.

Defeated Hamzaban and the Mirzas at Battle of Surat.

Defeated & Killed Mirza Mohammad Baig & Ikhtiyarul Mulk at Second Battle of Ahmedabad.

While returning from Ahmedabad

He Defeated Rawalya in Siege of Badnagar fort.

Also Defeated Rawal Asakaran in Battle Of Dungurpur.

His Bihar Campaign in 1631 V.S

Defeated Dawood Khan Pathan at Siege of Hajipur Fort Bihar.

Later deafeasted again Dawood Khan Pathan at Battle of Patna.

Later he Lead Campaign Against "Hindua Suraj Maharana Pratap the Great" at Thermopylae of India ( Battle of Haldighati ) in 1633 V.S.

In 1637 in his Campaign of Afghanistan:-

On way He Defeated Noorudin & Generals Of Mirza Mohammad Hakim at Battle Of Lahore.

Defeated and Killed Shadman Field Marshal of Mirza Mohammad Hakim in Siege of Nijab Fort at Attock

In 1638 V.S. Marching towards Kabul while Crossing Sindh River he Defeated Advance Forces of Mirza Mohammad Hakim.

Later Defeated Mirza Mohammad Hakin af Siege of Kabul.


In His Kabul Campaign

In 1640 V.S. he Defeated Yusufzai Pathan.

In 1641 V.S. Defeatd Mamanzai Pathan.

In 1642 V.S. Defeated Gazni Khel Pathans.

In 1643 V.s Defeated Roshanzai Pathans at Ali Musgid and Liberated & Protected Envoy from Iran (persia) against these Insurgents.

Later He was Again sent in Kabul in 1643-4$ V.S. after Birbal was Killed by Pathans.


He Defeated Roshanzai & Other tribes Of Pathans and their Chief Leader Jalal with great Loses.

Later in 1646 V.S. In Bihar he Conquered Puranmal by defeating Puranmal Kedaria.

In 1647 V.S. In Bihar he Subjudgated Raja Sangram.

In 1647 V.S. in Orissa Defeated & Killed Aghan Qatloo Khan.

In 1649 V.S. with Bengal Armies he Defeated and Destroyed Qatloo Sons and his afghan Army who Revolted in battle of Midnapur in Orissa.

Later same Year Again defeated Afghan Army of Qatloo Sons them at Battle of Katak in orissa.

In 1650 V.S. He subjugated Raja Ramchandra of Sarang Garh.

Later Conquered Jalesar in Orissa after Afghan Revolted there and Routed and Vanquished Revolted Afghans In Gorakhpur Orissa in 1650 V.S.

In 1654 V.S. He Conquered from Pratapaditya Salim Nagar in Orissa.

Later with loss of his son Durjan singh ji Defeated Pratapaditya & Isa Zamindar at battle of Bikrampur.

In 1658 V.S He Totally Defeated Afghans, Qatloo Son Osman & other Rebels in Battle of Sherpur-Atka in Bengal.

In1660 V.S. he Utterly Defeated Aghans, Qatloo Son Usaman at Battle of Bhawal in Bengal.

Conquered Sarhar & Bikrampur by Defeating Isa & Kedar Rai Zamindar.

He defeated and wounded (later dead) Kedar & the Zamindars of Manver in Battle of Nagar Soor.

In 1663 V.S. On order of New emepror he moved to Hisar from Bengal.

On way to Rohitas Fort he Subjugated rebels in Bihar.

In 1667 V.S. After staying 2 years in Amber he Conquered by Defeating Ruler of Burhanpur in Deccan before breathing His Last.

There's a famous saying in Rajasthan: 


जननी जनै तो ऐहड़ा, जेहा मान मरद्द।
समदर खांडो पखालियो, काबुल बांधी हद्द।।

Translation: Mother, if you must conceive, bear a child like the manly Maan Singh. He who crossed the Indus and fixed the frontier at Kabul.


Devotion of Afghans to many generation of Jaipur royal family since Raja Man Singh taught them civility.

Maharaja Sawai Maan Singh Kachawa - Always indebted 

मान सिंह वो मर्द था जिसकी तलवार ने काबुल से लेकर कन्याकुमारी व बंगाल से लेकर गुजरात के समुद्री भाग तक लहू पिया था। 

उड़ीसा में जगन्नाथ मंदिर समेत 7000 मंदिरों से ज़्यादा मंदिरों की रक्षा की।

हिंदुओं का मुक्ति स्थल गयाजी की न केवल रक्षा की, बल्कि वहां कई मंदिर बनवाये भी।

एशिया की सबसे बड़ी शक्ति अफगान मूलवंश बंगाल सल्तनत का नाश किया।

गुजरात को 300 साल बाद अफगान शासकों से आजादी दिलवाई।

द्वारिकाधीश मंदिर को मस्जिद से पुनः मंदिर बनाया।

तुलसीदास का सरंक्षक था। उन्ही के संरक्षण के कारण तुलसीदास रामायण लिखने में सफल हो पाए ।

काशी में हजारो मंदिरो का निर्माण करवाया

मीराबाई को पूरा सम्मान दिया, उनका भव्य मंदिर अपने ही राज्य में बनवाया।

अफगानिस्तान को तबाह करके रख दिया, जहां से पिछले 500 वर्षों से आक्रमण हो रहे थे ।

पूर्वी UP से लेकर बिहार, झारखंड की रक्षा की

सोमनाथ मंदिर का दुबारा उद्धार किया था, हालांकि बाद में औरंगजेब ने इसे तोड़ डाला

हिंदुओ पर लगा हुआ 300 वर्ष से चल रहा जजिया कर हटवाया

मथुरा का भी उद्धार किया ।।

राजा मानसिंह का हिन्दू मंदिरों का निर्माण करवाना और मंदिरों की सुरक्षा करना इसका उन्हें श्रेय मिलना ही चाहिए! लेकिन जब मुगलिया सल्तनत(तुर्क लुटेरे) के बादशाह अकबर(जलालुदीन मोहम्मद) और महाराणा प्रताप के बीच जों युद्ध लड़े गए उसमें मानसिंह ने अकबर के सेनापति के रूप में ही महाराणा प्रताप का सामना किया था! महाराणा प्रताप उस समय भी मेवाड़ और राजपूतों के गौरव और सनातन संस्कृति के लिए ही युद्ध कर रहे थे! इसलिए हमारे आदर्श केवल हिन्दुआ सूर्य प्रातः स्मरणीय एकलिंग नाथ दीवान महाराणा प्रताप ही है! जय एकलिंग जी!

पर एक हक़ीक़त यह भी है, की 1576 ईस्वी तक, जो हल्दीघाटी युद्धकाल समय था, उस समय तक मुगल तो मुट्ठीभर थे, भारत मे अफगान वंश के मुस्लिम कब्जा करके बैठे थे । मुगल तो यहां 100 साल भी ढंग से राज नही कर पाए ...

अफगानिस्तान के जिन कबीलों को वर्तमान विश्व महाशक्ति अमेरिका और सोवियत रूस अपने अत्याधुनिक हथियारों के बल पर हराना तो दूर, झुका तक नहीं सके, उन्हीं अफगानिस्तान के शासकों, कबीलों को आमेर के Raja Man Singh ने नाकों चने चबवा दिए थे|




पर मिर्ज़ा राजा मानसिंह जी गद्दार थे? 
जबकि उन्होंने इस्लाम धर्म नहीं कबूला, अपनी प्रजा को इस्लामीकरण से बचाया, मंदिर निर्माण आदि।
बीरबल गद्दार नहीं था?
जबकि उस ने इस्लाम कबूल किया अपने एवं अपने परिवार के भले के लिए। प्रचार तंत्र देखिए ,अकबर बीरबल के किस्से बच्चों को सुनाए जाते हैं।


ये भूलकर की जो समय राजा मानसिंहजी का था, उस समय मुगल केवल पंजाब दिल्ली और आगरा के आसपास तक सीमित थे, बाकी चारो ओर जैसे गुजरात, बंगाल, झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़ , पूर्वी उत्तरप्रदेश महाराष्ट्र, कर्नाटक, साउथ, आंध्र , बर्मा, बांग्लादेश, मध्यप्रदेश आदि सभी क्षेत्रों में क्रूर अफगान पठानो उर्फ दिल्ली इस्लामिक सल्तनत ओर उसकी शाखाओं का अधिकार था, इन्ही अफगानों की वजह से जौहर हुए थे, इन्ही अफगानों की वजह से भारत के लाखों मंदिर टूटे थे, ओर जिस हल्दीघाटी के समय की तुम बात करते हो, उस 1576 ईस्वी तक बंगाल सल्तनत जो पूर्वी UP से लेकर बर्मा तक फैली हुई थी, उसके पास 2 लाख की एक्टिव फ़ौज, लाखो जिहादी ओर 200 तोपें थी ।। बाकी इतना ही शक्तिशाली पठानो का मालवा, बहमनी ओर गुजरात सल्तनत था ।

ओर लगभग सभी हिन्दू शासन तंत्र भी इन अफगानों का सहयोगी बना हुआ था, गुजरात का द्वारिकाधीश मंदिर टूटा, उसे बचाने कोई नही गया, हालांकि जड़ेजाओ ने उसके लिए खूब खून बहाया, लेकिन वह मुट्ठीभर कब तक लड़ते ? बाकी किसी शासनतंत्र ने जहमत नही की, की मंदिर बचाया जाए, ओर सम्पूर्ण भारत की रक्षा की जाएं ।। मैं ज़्यादा कड़वे शब्द तो नही कहना चाहता, तुम्हारे कानो से खून निकल आएगा ...

कुछ लोग अपनी जनता तक कि फिक्र नही करते थे, उन्हें बस अपने किलो ओर अपने राज से मतलब था, लेकिन मानसिंह कभी आमेर के किले के नही लड़े, वह भारत की जनता के लिए लड़े, इसीलिए वह, बंगाल, बिहार, MP, बांग्लादेश, ओर जहां जहां हिन्दू अफगानों से पीड़ित थे, उस हर स्थान पर गए ।।

यह जितने तीर्थ मंदिर देखते हो, उनका ही इतिहास पता करो, गुजरात के द्वारिकाधीश मंदिर से लेकर, दूसरे क्षोर पर बसा उड़ीसा , जिसमे जगन्नाथ मंदिर है, उन सबकी रक्षा मानसिंह जी ने की है -- बाकी किसी ने नही । ओर हां, तुलसीदास जी के रामायण लिखने के सहयोगी भी मानसिंहजी थे, ओर चित्तौड़ की महारानी सन्त मीराबाई जी, कुँवर शक्ति सिंह जी को संरक्षण देने वाले भी मानसिंहजी ओर उनके बाप दादा ही थे । आमेर में मानसिंहजी का खुद का बनवाया हुआ मीराबाई का मंदिर आज भी है ....


सन 1585 में काबुल के शासक मिर्जा हकीम को युद्ध में परास्त करने के बाद राजा मानसिंह ने खैबर दर्रे और राजमार्गों को लूटने वाले दुर्दान्त अफगान कबीलों को कुचल कर अफगानिस्तान में शांति की स्थापना की| अफगानिस्तान बर्फ के पहाड़ों से घिरा हुआ है और राजस्थान जैसे गर्म प्रदेश में रहने वाले सैनिकों के बलबूते राजा मानसिंह ने मौसम की प्रतिकूल परिस्थितयों के बाद भी उस क्षेत्र के पठानों को कुचल कर उनके शस्त्र बनाने वाले कारखाने नेस्तानाबूद किये| इन्हीं शस्त्र कारखानों से भारत के आक्रमणकारियों को हथियार मिलते थे| विदेशी आक्रमणकारी इन्हीं हथियारों के बल पर भारत को लूटने के साथ यहाँ जबरन धर्म-परिवर्तन कराते थे| यदि मानसिंह ने इन्हें नेस्तानाबूद नहीं किया होता तो आज भारत का भी इस्लामीकरण हो चुका होता|

अफगान के जिन कबीलों को महाशक्ति अमेरिका काबू नहीं रख सकी, उन्हें मौसम की विपरीत परिस्थितियों में काबू करने वाले राजा मानसिंह के शौर्य के पैमाने की कल्पना कर सकते है कि उनकी वीरता और साहस कितने उच्च दर्जे का था|

उस ज़माने में राजा मानसिंह एक मात्र ऐसे सेनापति थे जो बर्फीली पहाड़ियों, घनघोर जंगलों, पहाड़ों और जल युद्ध में दक्षता रखते थे| राजा मानसिंह ने पंजाब, अफगानिस्तान, उड़ीसा, बिहार, बंगाल आदि कई क्षेत्रों में सफल सैन्य अभियान चलाये और वहां सफलता प्राप्त की| सिवाये महाराणा प्रताप जैसे उच्च श्रेणी के वीर श्रीओमणि के साथ हल्दीघाटी युद्ध में मानसिंह को मैदान छोड़ना पड़ा| इतिहास साक्षी है हल्दीघाटी युद्ध के युद्ध में मुग़ल सेना महाराणा प्रताप का बाल भी बांका ना कर सकी और हर मुटभेड़ में हारने के बाद मुग़ल सेना दिवेर युद्ध में महाराणा के सामने सबसे बड़ी और बुरी तरह हार कर भागी| स्वयं अकबर भी मेवाड़ से असफल होकर वापस लौटा था|

अपने जीवन में 123 युद्ध जिसमें 77 बड़े युद्ध लड़कर जीतने वाले राजा मानसिंह ने देश के विभिन्न क्षेत्रों में विजय पाने के बाद अपने पूर्वज श्रीराम का अनुसरण करते हुए लंका पर चढ़ाई कर उसे विजय करने का विचार किया और लंका विजय की योजना बनाने का कार्य आरम्भ किया| राजा मानसिंह की लंका विजय की योजना के बारे में एक चारण कवि को पता चला तो उसने राजा मानसिंह के इस अभियान को रोकने के लिए एक सौरठे की रचना कर राजा मानसिंह को सुनाया-

रघुपति दीन्हों दान, विप्र विभीषण जानके|
मान महिपत मान, दियौ दान मत लीजै||

अर्थात्- भगवान राम ने विभीषण को ब्राह्मण जानकर लंका दान में दी थी| अत: हे राजा मान ! उनका दिया दान वापस मत लो|
कवि का उक्त सौरठा सुनने के बाद राजा मानसिंह ने लंका विजय का अपना अभियान रोक दिया|

आमेर के इतिहास प्रसिद्ध राजा मानसिंह सनातन धर्म के अनन्य उपासक थे. वे सनातन धर्म के सभी देवी और देवताओं के भक्त थे व स्वधर्म में प्रचलित सभी सम्प्रदायों का समान रूप से आदर करते थे| उनकी धार्मिक आस्था पर भले ही समय समय पर किसी सम्प्रदाय विशेष का प्रभाव रहा हो, पर वे हमेशा एक आम राजपूत की तरह अपने ही कुलदेवी, कुलदेवता व इष्ट के उपासक रहे| अपनी दीर्घकालीन वंश परम्परा के अनुरूप राजा मानसिंह ने सभी सम्प्रदायों के संतों का आदर किया पर उनके जीवन पर रामभक्त संत दादूदयाल का सर्वाधिक प्रभाव रहा. यद्धपि राजा मानसिंह सनातन धर्म के दृढ अनुयायी रहे फिर भी वे धर्मान्धता और अन्धविश्वास से मुक्त धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोत थे. जिसकी पुष्टि रोहतास किले में एक पत्थर पर उनके द्वारा उत्कीर्ण करवाई एक कुरान की आयात से होती है, जिसमें कहा गया है कि- "धर्म का कोई दबाव नहीं होता, सच्चा रास्ता झूठे रास्ते से अलग होता है|"

राजा मानसिंह के काल में अकबर ने धर्म क्षेत्र में नया प्रयोग किया और अपने साम्राज्य में एक विश्वधर्म की स्थापना के लिए "दीने इलाही" धर्म विकसित किया| राजा मानसिंह अकबर के सर्वाधिक नजदीकी व्यक्ति थे, फिर भी अकबर की लाख कोशिशों के बाद भी वे अपने स्वधर्म से एक इंच भी दूर हटने को तैयार नहीं हुये| अकबर के दरबारी इतिहासकार बदायुनी का कथन है कि "एक बार 1587 में जब राजा मानसिंह बिहार, हाजीपुर और पटना का कार्यभार संभालने के लिए जाने की तैयारी कर रहे थे तब बादशाह ने उसे खानखाना के साथ एक मित्रता का प्याला दिया और दीने इलाही का विषय सामने रखा| यह मानसिंह की परीक्षा लेने के लिए किया गया| कुंवर ने बिना किसी बनावट के कहा अगर सेवक होने का मतलब अपना जीवन बलिदान करने की कामना से है तो मैंने अपना जीवन पहले ही अपने हाथ में ले रखा है| ऐसे में और प्रमाण की क्या जरुरत| अगर फिर भी इस बात का दूसरा अर्थ है और यह धर्म से सम्बन्धित है तो मैं निश्चित रूप से हिन्दू हूँ|"


इस तरह राजा मानसिंह ने अकबर द्वारा मित्रतापूर्वक धर्म परिवर्तन का प्रस्ताव ठुकरा कर अपने स्वधर्म में अप्रतिम आस्था प्रदर्शित की| रॉयल ऐशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल के जरनल में मि. ब्लौकमैन ने अपने लेख में लिखा है- "अकबर के अनुयायी मुख्यरूप से मुसलमान थे| केवल बीरबल को छोड़कर जो आचरणहीन था, दूसरे किसी हिन्दू सदस्य का नाम धर्म परिवर्तन करने वालों में नहीं था| वृद्ध राजा भगवंतदास, राजा टोडरमल और राजा मानसिंह अपने धर्म पर दृढ रहे यद्धपि अकबर ने उनको परिवर्तित करने की चेष्टा की थी|

राजा मानसिंह ने सनातन धर्म शास्त्रों के साथ साथ कुरान का भी गहन अध्ययन किया था और उसकी मूलभूत बातों से वे परिचित थे| मुंगेर में दौलत शाह नाम के एक मुस्लिम संत ने भी राजा मानसिंह को इस्लाम की शिक्षाओं से प्रभावित कर उनका धर्म परिवर्तन कराने की कोशिश की पर राजा मानसिंह मानते थे कि परमात्मा की मोहर सबके हृदय पर है| यदि किसी की कोशिश से मेरे हृदय का वह ताला हटा सकती है तो मैं उसमें तत्काल विश्वास करने लग जावुंगा| यानी वह किसी भी धर्म को तभी स्वीकार करने को तैयार है बशर्ते वह धर्म उनके मन में सत्यज्ञान का उदय कर सके| इस तरह अकबर के साथ कई मुस्लिम सन्तों की चेष्टा भी राजा मानसिंह की स्वधर्म में अटूट आस्था को नहीं तोड़ सकी| राजा के निजी कक्ष की चन्दन निर्मित झिलमिली पर राधाकृष्ण के चित्रों का चित्रांकन राजा मानसिंह की सनातन धर्म में अटूट आस्था के बड़े प्रमाण है| आमेर राजमहल में राजा मानसिंह का निजी कक्ष में विश्राम के लिए अलग कक्ष व पूजा के लिए अलग कक्ष व पूजा कक्ष के सामने एक बड़ा तुलसी चत्वर, राजमहल के मुख्य द्वार पर देवी प्रतिमा राजा मानसिंह के धार्मिक दृष्टिकोण को समझने के लिए काफी है|

राजा मानसिंह ने अपने जीवनकाल में कई मंदिरों का निर्माण, कईयों का जीर्णोद्धार व कई मंदिरों के रख रखाव की व्यवस्था कर सनातन के प्रचार प्रसार में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई| यही नहीं राजा मानसिंह ने सनातन मंदिरों के लिए अकबर के खजाने का भरपूर उपयोग किया और दिल खोलकर अकबर के राज्य की भूमि मंदिरों को दान में दी| बनारस में राजा मानसिंह ने मंदिर व घाट के निर्माण पर अपने एक लाख रूपये के साथ अकबर के खजाने से दस लाख रूपये खर्च कर दिए थे, जिसकी शिकायत जहाँगीर ने अकबर से की थी, पर अकबर ने उसकी शिकायत को अनसुना कर मानसिंह का समर्थन किया|

राजा मानसिंह ने अपने राज्य आमेर के साथ साथ बिहार, बंगाल और देश के अन्य स्थानों पर कई मंदिर बनवाये| पटना जिले बरह उपखण्ड के बैंकटपुर में राजा मानसिंह ने एक शिव मंदिर बनवाया और उसके रखरखाव की समुचित व्यवस्था की जिसका फरमान आज भी मुख्य पुजारी के पास उपलब्ध है| इसी तरह गया के मानपुर में भी राजा ने एक सुन्दर शिव मंदिर का निर्माण कराया, जिसे स्वामी नीलकंठ मंदिर के नाम से जाना जाता है| इस मंदिर में विष्णु, सूर्य, गणेश और शक्ति की प्रतिमाएं भी स्थापित की गई थी| मि. बेगलर ने बंगाल प्रान्त की सर्वेक्षण यात्रा 1872-73 की अपनी रिपोर्ट में उल्लेख किया है कि- "राजा मानसिंह ने बड़ी संख्या में मंदिर बनाये और पुरानों का जीर्णोद्धार करवाया| ये मंदिर आज भी बिहार में बंगाल के उपखंडों में विद्यमान है| 

रोहतास किले में भी राजा मानसिंह द्वारा मंदिर बनवाये गए थे|

आमेर के राजा मानसिंह ने देश के विभन्न भागों में बहुत से मंदिरों का निर्माण करवाया व कई मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया, हरिद्वार में हर की पौड़ी बनवाई| अपने इसी धार्मिक क्रियाकलापों की श्रंखला में राजा मानसिंह ने वाराणसी में एक मंदिर और घाट बनवाया, जिसे मानमंदिर के नाम से जाता है इतिहास में इस मंदिर के बारे में दर्ज है-
1600 ई. में आमेर के राजा मानसिंह ने बनारस में एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया था। हालाँकि वाराणसी नगर में इस मंदिर की इतिहासकारों के हिसाब से वास्तविक स्थिति का पता नहीं लग सका है पर मगध विश्व विद्यालय, गया के इतिहास रीडर राजीव नयन प्रसाद अपनी पुस्तक “राजा मानसिंह आमेर” के पृष्ठ संख्या 209 पर लिखते है - एक भवन है जिसे मानमंदिर कहते है (मान का मंदिर), जो गंगा किनारे दशाश्वमेघ घाट से कुछ गज पश्चिम में बना हुआ है। जहाँगीरनामा में जिस मंदिर का उल्लेख है वह भवन के एक स्थान में निसंदेह बना हुआ होगा यही कारण है तमाम भवन को मान मंदिर कहा जाने लगा।

इतिहासकार राजीव नयन इस मंदिर के प्रधान देवता पर प्रश्न उठाते हुए लिखते है कि - वाराणसी को विश्वनाथपुरी भी कहा जाता है क्योंकि नगर के मुख्य देवता स्वामी विश्वनाथ है। इसके अतिरिक्त राजा मानसिंह के दूसरे मंदिरों में मुख्य देवता शिव या महादेव है, इसलिये इस बात की प्रबल सम्भावना है की मानमंदिर के मुख्य देवता भगवान शिव थे।


मानमंदिर आज खंडित अवस्था में है। इसके उपरी मंजिल में गृहों को देखने के लिए ज्योतिष के यंत्र फिट कर 1734 में राजा मान सिंह के वंशज सवाई जय सिंह द्वारा वैधशाला बनाई गई। झरोखेदार खिड़कियों, सीलिंग पर सुन्दर नक्काशी वाली मजबूत व बेजोड़ इमारत होने के बावजूद सामान्य दृष्टि से देखने पर मानमंदिर अधिक कलात्मक नहीं लगता, तथापि गंगा की और से देखने पर यह काफी विशाल दिखाई देता है। नदी की और इसकी एक छज्जेयुक्त खिड़की खुलती है जो तत्कालीन स्थापत्य कला की दृष्टि से सुहावनी व सुन्दर है। इसके नीचे राजा मानसिंह ने एक घाट का भी निर्माण कराया जिसे मानघाट के नाम से आज भी जाना जाता है।

मानसिंह द्वारा निर्मित यह मंदिर उस वक्त उतरी भारत का एक सुन्दर और महत्त्वपूर्ण धार्मिक केंद्र था। इस मंदिर के बारे में जहाँगीर ने अपने आत्मरचित ग्रन्थ में लिखा - राजा मानसिंह ने बनारस में एक मंदिर बनवाया, उसने मेरे पिता के कोषागार से उस पर 10 लाख रूपये खर्च किये। यह विश्वास है कि जो यहाँ मरते है सीधे स्वर्ग जाते है - चाहे बिल्ली, कुतिया, मनुष्य कोई भी हो। मैंने एक विश्वासी आदमी को मंदिर के बारे में सभी जानकारियां लाने के लिए भेजा। उसने सूचना दी कि राजा ने इस मंदिर के निर्माण में अपने स्वयं के एक लाख रूपये खर्च किये है। इस समय इससे बड़ा दूसरा मंदिर वाराणसी में नहीं है। मैंने अपने पिता से पूछा कि उसने इस मंदिर को बनाने की स्वीकृति क्यों दी ? तो उनका उत्तर था - “मैं सम्राट हूँ और बादशाह या सम्राट पृथ्वी पर परमात्मा की छाया होते है। मुझे सबके प्रति उदार होना चाहिये।”
मौलाना एच. एम. की पुस्तक दरबार ए अकबरी के अनुसार जहाँगीर आगे चलकर लिखता है - “मैंने इसके पास इससे भी बड़ा मंदिर बनाने का आदेश दिया।”
इतिहासकार श्रीराम शर्मा लिखते है कि - अब्दुल लतीफ जो एक मुस्लिम पर्यटक था ने अपनी डायरी में, जिसे उसने जहाँगीर के शासनकाल में लिखी थी, इस मंदिर की स्थापत्य कला की सुन्दरता का हवाला दिया है और लिखा है कि क्या अच्छा होता अगर यह हिन्दू धर्म की सेवा के बदले इस्लाम धर्म की सेवा में बनाया जाता।
जयपुर की वंशावली में भी उल्लिखित है कि - राजा मानसिंह ने एक बड़ा मंदिर बनारस में लोगों की पूजा के लिए बनवाया।


मथुरा के तत्कालीन छ: गुंसाईयों में से एक रघुनाथ भट्ट के अनुरोध पर राजा मानसिंह ने वृन्दावन में गोविन्ददेव का मंदिर बनवाया था|


आमेर के किले शिलादेवी का मंदिर भी राजा मानसिंह की ही देन है|


 शिलादेवी की प्रतिमा राजा मानसिंह बंगाल में केदार के राजा से प्राप्त कर आमेर लाये थे| परम्पराएं इस बात की तस्दीक करती है कि राजा मानसिंह ने हनुमान जी की मूर्ति को और सांगा बाबा की मूर्ति को क्रमश: चांदपोल और सांगानेर में स्थापित करवाया था| आज भी लोक गीतों में गूंजता है-

सांगानेर को सांगो बाबो, जैपर को हडमान
आमेर की सिला देवी, ल्यायो राजा मान

आमेर में जगत शिरोमणी मंदिर का निर्माण कर उसमें राधा और गिरधर गोपाल की प्रतिमाएं भी राजा मानसिंह द्वारा स्थापित करवाई हुई है|


मंदिर निर्माणों के यह तो कुछ ज्ञात व इतिहास में दर्ज कुछ उदाहरण मात्र है, जबकि राजा मानसिंह ने सनातन धर्म के अनुयायियों हेतु पूजा अर्चना के के कई छोड़े बड़े असंख्य मंदिरों का निर्माण कराया, पुराने मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया और कई मंदिरों के रखरखाव की व्यवस्था करवाकर एक तरह से सनातन धर्म के प्रसार में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई|

पर अफ़सोस जिस राजा मानसिंह ने सनातन धर्म के प्रसार से इतना सब कुछ किया आज उसी राजा मानसिंह को वर्तमान हिन्दुत्त्ववादी कट्टर सोच के लोग अकबर का चरित्र हनन करते समय मानसिंह का भी चरित्र हनन कर डालते है| मानसिंह ने राणा प्रताप के खिलाफ युद्ध लड़ा, उसके लिए वे राणा के दोषी हो सकते है, लेकिन मानसिंह ने अकबर जैसे विजातीय के साथ अपने पुरखों द्वारा उस समय की तत्कालीन आवश्यकताओं व अपने राज्य के विकास हेतु की गई संधि को निभाते हुये, उसी की सैनिक ताकत से हिदुत्त्व की जो रक्षा की वह तारीफे काबिल है। लेकिन अफसोस वर्तमान पीढी बिना इतिहास पढ़े देश की वर्तमान परिस्थियों से उस काल की तुलना करते उनकी आलोचना करने में जुटी रहती है|


इतिहास का विश्लेषण कीजिये, ऐसा न हो कहीं हम कर्नल टॉड ओर चाटुकार इतिहासकारो का इतिहास पढ़कर भारत के वीर पुत्रो का अपमान कर रहे हो ...

ऐसे महान दूरदर्शी महाराज की पुण्यतिथि पर मेरा शत शत नमन 

किसी भी राजा या धर्म की ध्वजा उनके वर्चस्व, प्रतिष्ठा, बल और इष्टदेव का प्रतीक होता है। हर राजा, देश या धर्म की अपनी अपनी अलग अलग रंग की ध्वजा (झण्डा) होती है। सनातन धर्म के मंदिरों में भगवा व पंचरंगा ध्वज लहराते नजर आते है। भगवा रंग सनातन धर्म के साथ वैदिक काल से जुड़ा है, हिन्दू साधू वैदिक काल से ही भगवा वस्त्र भी धारण करते आये है। लेकिन मुगलकाल में सनातन धर्म के मंदिरों में पंचरंगा ध्वज फहराने का चलन शुरू हुआ। जैसा कि ऊपर बताया जा चूका है ध्वजा वर्चस्व, प्रतिष्ठा, बल और इष्टदेव का प्रतीक होती है। अपने यही भाव प्रकट करने के लिए आमेर के राजा मानसिंह ने कुंवर पदे ही अपने राज्य के ध्वज जो सफ़ेद रंग का था को पंचरंग ध्वज में डिजाइन कर स्वीकार किया।

राजा मानसिंहजी ने मुगलों से सन्धि के बाद अफगानिस्तान (काबुल) के उन पाँच मुस्लिम राज्यों पर आक्रमण किया, जो भारत पर आक्रमण करने वाले आक्रान्ताओं को शस्त्र प्रदान करते थे, व बदले में भारत से लूटकर ले जाए जाने वाले धन का आधा भाग प्राप्त करते थे। राजा मानसिंह ने उन्हें तहस-नहस कर वहाँ के तमाम हथियार बनाने के कारखानों को नष्ट कर दिया व श्रेष्ठतम हथियार बनाने वाली मशीनों व कारीगरों को वहाँ से लाकर जयगढ़ (आमेर) में शस्त्र बनाने का कारखाना स्थापित करवाया। इस कार्यवाही के परिणाम स्वरूप ही यवनों के भारत पर आक्रमण बन्द हुए व बचे-खुचे हिन्दू राज्यों को भारत में अपनी शक्ति एकत्र करने का अवसर प्राप्त हुआ। यही नहीं राजा मानसिंह आमेर ने भारतवर्ष में जहाँ वे तैनात रहे वहां वहां उन्होंने मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया व नए नए मंदिर बनवाये। मंदिरों की व्यवस्था के लिए भूमि प्रदान की. उड़ीसा में पठानो का दमन कर जगन्नाथपुरी को मुसलमानों से मुक्त कर वहाँ के राजा को प्रबन्धक बनाया। हरिद्वार के घाट, हर की पैडियों का भी निर्माण भी मानसिंह ने करवाया।

मानसिंहजी की इस कार्यवाही को तत्कालीन संतों ने पूरी तरह संरक्षण व समर्थन दिया तथा उनकी मृत्यु के बाद हरिद्वार में उनकी स्मृति में हर की पेड़ियों पर उनकी विशाल छतरी बनवाई। यहाँ तक कि अफगानिस्तान के उन पाँच यवन राज्यों की विजय के चिन्ह स्वरूप जयपुर राज्य के पचरंग ध्वज को धार्मिक चिन्ह के रूप में मान्यता प्रदान की गई व मन्दिरों पर भी पचरंग ध्वज फहराया जाने लगा। नाथ सम्प्रदाय के लोग "गंगामाई" के भजनों में धर्म रक्षक वीरों के रूप में अन्य राजाओं के साथ राजा मानसिंह का यशोगान आज भी गाते।

आमेर राज्य के सफ़ेद ध्वज की जगह पंचरंग ध्वज के पीछे की कहानी-
इतिहासकार राजीव नयन प्रसाद ने अपनी पुस्तक "राजा मानसिंह" के पृष्ठ संख्या 111 पर जयपुर के पंचरंग ध्वज के बारे में कई इतिहासकारों के सन्दर्भ से लिखा है- "श्री हनुमान शर्मा ने अपनी पुस्तक "जयपुर के इतिहास" में लिखा है कि जयपुर पंचरंगा ध्वज की डिजाइन मानसिंह ने बनायी थी। जब वह काबुल के गवर्नर थे। इसके पहले राज्य का ध्वज श्वेत रंग था। श्री शर्मा आगे चलकर कहते है कि जब मनोहरदास जो मानसिंह का एक अधिकारी था, उत्तर-पश्चिम सीमान्त प्रदेश के अफगानों से लड़ रहा था। उसने लूट के माल के रूप में उनसे भिन्न-भिन्न पांच रंगों के ध्वज प्राप्त किये थे। ये ध्वज नीले, पीले, लाल, हरे और काले रंग के थे। मनोहरदास ने कुंवर को सुझाव दिया कि राज्य का ध्वज कई रंगों का होना चाहिये केवल श्वेत रंग का नहीं। इस सुझाव को शीघ्र स्वीकार कर लिया गया। उस समय से जयपुर राज्य का ध्वज पांच रंगों वाला हो गया। ये रंग है नीला, पीला, लाल और काला।

श्री शर्मा के कथन के पीछे स्थानीय परम्परा है। जयपुर के लोग इस कथन की पुष्टि करते है कि राज्य का पंचरंगा झण्डा सबसे पहले कुंवर मानसिंह ने तैयार किया था। उस समय वे काबुल के गवर्नर थे। इसके अतिरिक्त श्री पट्टाभिराम शास्त्री जो महाराजा संस्कृत कालेज जयपुर के प्रिंसिपल थे ने अपने जयवंश महाकाव्य की भूमिका में इस तथ्य का उल्लेख किया कि जयपुर के पंचरंग ध्वज की कल्पना मानसिंह द्वारा की गई थी।"

रियासती काल में झंडे की वंदना में यह उल्लेखित है:-
मान ने पांच महीप हराकर,
पचरंगा झंडा लहराकर,
यश से चकित किया जग सारा,
झंडा ऊंचा रहे हमारा।

इतिहास का विश्लेषण कीजिये, ऐसा न हो कहीं हम कर्नल टॉड ओर चाटुकार इतिहासकारो का इतिहास पढ़कर भारत के वीर पुत्रो का अपमान कर रहे हो..................


Raja Man Singh was the only man in the last 2000 years to have conclusively defeated and enslaved Afghans on their home turf.

A feat which even modern powers such as the Americans and Russians have failed to achieve.

Raja Man Singh was the best military commander of his times. 

Their five-colour banner, the panch-ranga,has floated almost within sight of the Oxus river in the heart of Central Asia and beyond Qandahar to the Helmand river across the Persian frontier.


Haveli Maan Singh, Rohtas Fort, Jhelum.


You may find it interesting. Flag of Raja Man Singh still furls over Rohtash fort , Jhelum , punjab pakistan

Three Flags over the Rohtas Fort, Jhelum, Pakistan are:-

1. The Kachhwaha Panchranga Flag, introduced by Raja Man Singh.

The 5 bands represent his successful conquest of all 5 ruling tribes of Afghanistan.

2. Pakistan's National Flag.

3. Mughal Shir-u-Khurshid (Lion & Sun) Flag.


Heroes die but their deeds live on.  Easily the greatest millitary commander of his times.


Sawai MahaRaja Man Singh of Amber

The Bravest of Brave Kachwahas.


The Amber fort was built by Raja Man Singh in the 16th century and was completed by Sawai Jai Singh in the 18th Century. It is in Amer, Rajasthan.

Beauteous Jal Mahal is a palace built on an island in the middle of Man Sagar lake in Jaipur (Rajasthan, India). It was supposedly built during the time of Maharaja Sawai Jai Singh II (reign. 1699-1743). 

The lake is also artificially created long before by another ruler of Amber-Jaipur kingdom, Raja Man Singh I (reign. 1589-1614), by building a dam over the Dravyavati river in 1610 CE. of which four floors remain underwater when the lake is full and the top floor is exposed. The lake also have many other islands, on which upto 180 species of birds lives, including migratory ones. 


The Indian Birding Fair fest is conducted on the banks of Man Sagar lake.

War helmet of Raja Man Singh I at albert hall museum. A devout Hindu, he rejected din-i-illahi.

~ The best millitary commander of his times.
~ Conquering Afganistan beating Five tribes of Pathans
~ Liberating Orissa and temples from the clutches of Pathans
~ Building marvelous architecture
~ He was a staunch follower of Dharma
~ Built the Hindu temples all around the country.

Extremely smart too.. Everytime a battle was won or a rebellion suppressed, even though the territory would accede to the empire, most of the treasure would be appropriated to Amer.. From Jamrud to Jessore, he won the entire land mass.. He saved the Jagannath Dham of Odisha from the Pathans.. 

He was appointed the Governor (equivalent of a Ruler) of the Bengal, Bihar, Orissa (East) region.. Akbar's own son(s) didn't enjoy a rank that Maharaja Man Singh did.. Even at the Haldi ghati, Salim went as his assistant.. 


He clearly refused Din- e Ilahi and He was also the first amongst the Hindus in Akbar's court to downright reject converting to Akbar's new religion Din-e-Illahi.



At haldi ghati, ever wondered why Maharana Pratap couldn't be captured or killed despite being terribly outnumbered & having retreat in the battle? Why would a clever general like Man Singh send just 2 Mughals (not Rajput) soldiers to chase him and not 20 or 200? 

There was a marital alliance (that is doubted by numerous Indian & Persian accounts) but what we are sure about is where Maharaja Man Singh married Mubarak neice of Akbar and the daughter of Adham Khan, another wife Munbari was also muslim..

Distorians very cleverly disguised Kacchwahas as traitors but it’s very well documented that After Haldi Ghati Akbar never trust Maan Singh & he never send him again in campaigns of Rajputana. (Truth about Shivaji escape from Aurangzeb prison was also never come out but Melechhas had there doubts)

Truth is, Jalaluddin did not trust Maharaja Man Singh to fight a fellow rajput, even before the Haldighati Battle, that's a well documented fact in islamic texts. People portray him as the enemy of Mewar, but his wife built a temple for Mewari Queen Mira Bai.

Here's a Mughal courtier on alliance


4 out of 9 Nauratna of Akbar were Hindus. 
1/4 Hindus was Rajput(Raja Man Singh-never gave up his religion, defeated all 5 tribes of Afghanistan. Restored 80 ghats of Benaras and list goes on.First Indian Native Warrior since Afghans became Muslim), Remaining 3/4 were non-Rajput Hindu.


1.Birbal: a Brahmin, gave intel and ideas how to divide, enslave & rule Hindus.
2.Todarmal: Managed finance & helped Mughal established.
3. Tansen: Another Brahmin, entertained Mughals.

All 3 Non-Rajput Hindus gave up their religion & Janeu.

 Raja Man Singh and the Siege of Surat...

Reading through Raja Man Singh (then Kunwar Man Singh) and the Mughal Emperor Akbar's History, one comes across the Siege of Surat, which lasted a little more than a month, from January 11th to February 26th of the year 1573. Hamzaban, the commandant of Surat, previously loyal to Akbar's father Humayun had rebelled, and after diplomatic negotiations under Todar Mal had failed a siege was set up. The Emperor himself was leading the siege accompanied by Kunwar Man Singh and other nobles.

While going through the translations of Abu'l-Fazl's Akbarnama, an interesting incident comes forth that goes on to show the dynamics of the relations between the Kachhwahas, especially under Raja/Kunwar Man Singh and the Mughal Emperors (in this case Akbar). As the joint Mughal and Rajput forces set camp outside Surat, drinks and conversations ensued on a daily (nightly?) basis, over dinner, post dinner, and even further.

Akbar was unapologetically fond of alcohol for most of his life, as Jahangir said...

"After my birth they gave me the name of Sultan Salim, but I never heard my father, whether in his cups or in his sober moments, call me Muhammad Salim or Sultan Salim, but always Shaikhu Baba".

Image: "Emperor Akbar fights Kunwar Man Singh of Amber at a Drinking Party", from the History of Akbar or Akbarnama, by Abu'l-Fazl.~ Part of a collection in the Chester Beatty Library, Dublin, Ireland.

During one of those nights, the Mughal and Rajput noblemen discussed the bravery of the Rajputs. The Mughal nobles were going on and on about how valiantly the Rajputs fight in the battles and how they are not afraid of death. The Emperor himself, albeit completely engaged in the merrymaking, didn't have an equivalent.

Akbar was getting a little envious of the praises the Rajputs were getting.

Like his predecessors he was fond of alcohol, and often drank more than he could carry. When he heard someone say "The Rajputs can take spears on their bare chests without fear of death", it hits him...

Akbar took out his sword, fixed the hilt onto a structure and decided to show that he too was as brave as the Rajputs.

BY RUNNING INTO HIS OWN SWORD

Everyone in the audience was either too intoxicated, stupefied or both to believe or respond to what was transpiring before them. As Emperor Akbar charged towards his own blade a "Foot of Fidelity", to quote the Mughal Historian Abu'l-Fazl ibn Mubarak, came from none other than Kunwar Man Singh and hit the Emperor, the same foot then dislodged his sword, sending it flying. Emperor Abu'l-Fath Jalal-ud-din Muhammad 'Akbar', now on his fours, tried to grab his 'now flying' sword once again, but ended up wounding his finger with it. The brawl ensued, Kunwar Man Singh, had just turned 22, but was still in his senses, or at least far more so than Akbar.

Naturally, he held back due to the Mughal Emperor's stature and state of inebriation but then Akbar got a choke hold on Man Singh's neck.

This sent the Emperor into a fit of drunken rage after which he pounced on Kunwar Man Singh.

Image: "Anxious Courtiers Watching Emperor Akbar Fight Kunwar Man Singh at a Drinking Party, from the History of Akbar or Akbarnama, by Abu'l-Fazl.~ Part of a collection in the Chester Beatty Library, Dublin, Ireland. 

The Nobles, though participants of the bacchanalia, were more comfortable being audiences of the brawl. They couldn't do much anyway, ire of either of the two, Kunwar Man Singh or Emperor Akbar could cost them significantly. This however ended when one of the Mughal Nobles present in the audience, Sayid Muzaffar joined in and twisted the Emperor's already injured finger so hard that the Emperor even in this state of inebriation cried in agony and loosened his grip. Before Akbar could redirect himself to Sayid Muzaffar, rest of the noblemen came and subdued the Emperor until he came back to his senses the next morning. The Emperor had the good sense of not resenting the means by which his friends saved him from himself that day.  Later, the Siege of Surat resumed, ending successfully, Hamzaban surrendered, and his impertinent tongue that he used for the Emperor and his emissaries, was cut out.


He could have won that war without a fight, had it not been for Kunwar Man Singh and his "Foot of Fidelity".

This incident would feature not just in Abu'l-Fazl's memoires but also in Mutamid Khan's Iqbalnama.

This incident gives us an idea of what position Kunwar Man Singh held, despite not even being the Raja of Amber yet. He could brawl with Akbar, and the nobles would side with him.

Thus Remembering the Lord of Amber, who humbled hitherto unbested and thus proud foes; the great diplomat, the conqueror of five Pashtun tribes including ferocious Yusufzais and Mandars and Bengal, Bihar and Orissa.

Raja Man Singh I , was one of the most charismatic Generals of his era. Though the Dhundhar State allied with the  Timurid Dynasty during Raja Bharmal's time.


It was during Raja Man Singh's period that the hostility between Western Rajputs and the Central Asians were reversed.


After fall of Hindushahi Maharajadhiraj Jaypala in 10th century, Raja Man Singh and his Rajputs of Dhundhar were first Rajputs who kept foot in Central Asia and began invading Afghan & Central Asian - a saga joined in by both Rajput Rajas of Rajasthan & Pahadi Rajput Rajas. 


In 1585, the empire was perturbed by the revolt of Pashtuns who thwarted every effort of Mughal to subdue them.

Finally it fell upon Raja Man Singh,  one of the greatest Rajput commanders of all time, to quell the revolt and crush Aghan spirit and boy did he do it spectacularly. The real problem lay behind the Khyber pass,  the Pashtun stronghold. All previous Mughal attempts were a failure and the pass remained guarded as ever.

Within India itself the Kachhwa(Jaipur) standard has penetrated to the Garhwal hills in the north,the bank of the Brahmaputra in the furthest east, and the Krishna river in the south. It has crossed the terrible Rann of Cutch, in the extreme west.


But this wasn't to be a stumbling block in the path of Raja Man Singh, a scion of Bhagavān Rama of Raghukul himself, who was known for his tenacity and resolve. With few of his Kachwaha clansmen alongside,  he managed to cross the pass and dealt a crushing defeat upon the revolting Afghan tribes which included the likes of Yusufzai and Mandar. This proved to be a devastating blow to the Pashtun spirits and area remained in the peace for sometime afterwards.


The flag of Amber was changed from "Katchanar" (green climber in white base) to "Pachranga" (five colored) to commemorate this victory.

This flag continued in use until accession of Jaipur state in India.


Do u guys know how many temples and ghats were built by Raja Man Singh and Kachwaha house, only a few families in Medieval and modern period can claim to be as dharmic as Kachwahas. Yet we see people abusing them day and night and never saw people like you questioning them.

Raja Man Singh did what he could,saved around 7,000 temples throughout India.
Became a Patron of Goswami Tulsidas.
Built a temple for Mewari Queen & Sant MeeraBai ji.
Built 7 storied Govindji Temple costing 1 Crore at that time.

Bt let's hunt him coz it doesn't fit the narrative.


Raja Man Singh did not allow the Mughal Army to pillage Mewar. Shahbaz Khan was sent by Akbar to kill Maharana, but a Kacchwaha killed Shahbaz Khan, who was the leader of Kacchwahas? Raja Man Singh.

Raja Man was a Krishna Bhakt & only hindu in his Navratnas against Din I Ilahi.


Akbarnama clearly mentions how Akbar was suspicious of Raja Man Singh and other Rajput's intentions to quell Maharana. When he wasn't successful in Haldighati, he took all the honours of Raja Man Singh. He never sent any Rajput to attack Maharana afterwards.

Reason Maharana Pratap is Kshatriya Kulbhushan, our Hero, our inspiration, But Raja Maan isn't the Villain that he is projected. Raja Maan served Akbar, but even then, his devotion was always to Sanatani Values and Indians, otherwise what was the need of Building 1000s of temples in Benaras, Bihar & Bengal, who weren't his subjects and who had nothing to do with him. History didn't do justice with him. In our opinion, he was the pioneer of Sanatan Dharma in Mughal era.

He built & rebuilt hundreds of temples and dharmshalas throughout India.

He used his personal fund for development.

Kashi Vishwanath temple is his biggest achievement. Last form of temple was built by him.



All this rebuilding activities were done through his personal coffers. He was the first Indian in millenniums to go to Afghanistan literally reduce the continuously invading tribal afghans to ashes.


Raja Maan Singh was a well known devotee of Bhagavān Shri Krishna and Bhagavān Vishnu. He had a seven storey temple constructed in Vrindavan dedicated to Bhagavān Shri Krishna for Srila Rupa Goswami, a Gaudiya Vaishnavite saint. The cost of construction was one crore at that time


Raja Man Singh built the Jagat Shiromani Temple at Amer for Mewari Queen & saint Meera Bai ji.

It was upon Raja Man Singh's insistence that Jaziya was removed by Akbar after 3 centuries.


Raja Man Singh built around '1000 temples in Benaras' and made it a city of Temples again which were left in dilapidated condition after the destruction caused by Earlier Maleccha rule.
Sawai Jai Singh II built a Ved Shala in Benaras later.


Manmandir Ghat, surmounted by the Man Mandir, a palace built by Maharaja Man Singh of Amber. Built before 1585 C.E. It is the oldest building in Varanasi.


Incidentally, it was in this place that Sawai Jai Singh 2nd constructed Jantar Mantar Observatory in 1737 C.E. 


Isnt it strange even in the midst of local wars Raja Jai Singh II found the time to build five observatories: Delhi,Mathura,Agra,Benaras,Ujjain(capital of his Malwa province),and his own capital of Jaipur.


The Pracheen Hanuman Mandir of Cannaught Place, was built by Raja Man Singh ji Amber in the heart of Mughal capital 500 yrs ago. It was renovated by Sawai Jai Singh in 1724.

It's a famous cultural landmark in Delhi today. 


He built the famous Surya Mandir in Bihar.
Also built a town: Manpur where he built MAHADEV TEMPLE with a big kund.




When Bihar was under the tyrannic rule of Afghans,Raja Maan Singh defeated them,rebuilt 100s of temples for Hindus, where Hindus could freely practice their religion.


Ganesh Temple in Rohtasgarh Fort
Temple, 


Temple was constructed by great Rajput rular Raja Man Singh of Amber 


He was also the first amongst the Hindus in Akbar's court to downright reject converting to Akbar's new religion Din-e-Illahi.

He was also a patron of Goswami Tulsidas & made his son, Jagat Singh l his disciple. Raja Man Singh ensured ban on cow slaughter, removal of zaziya etc.


How many of us know that Raja Man Singh of Amber (in Rajputana) worshipped Lord Shiva in Jammu's Kashi: Purmandal Shiv Mandir before his campaign in Kabul? 

He vowed to build a new temple on his victory. He repaid the divine favour by constructing Uma Mahapati temple in Purmandal


Have you ask why there should be no temples in islamabad ??

Before being a capital of Islamic nation the place was called potohar and had huge population of Hindus and Sikhs, the most beautiful of the remaining temples are the ones shown here, in the backdrop is sikh gurudwara & school




The village named saidpur that was named after the Mughal Royal who was bestowed this jagir by the Mughal court, there were beautiful Hindu temples in this predominantly Hindu village which were built by Raja Maan singh of Amer.



Maan singh, the great commander and a formidable warrior was a patron of arts and architecture and built several beautiful temples, gardens and palaces in his lifetime,


In terms of sheer numbers, temples were the most common building type built by Raja Man,


but its setting: a natural spring surrounded by hills was conceived as home for gods by him.


The Wah Garden,


now known as Mughal Gardens were originally built by Raja Man Singh and not Akbar.



Man Mahal, Pushkar built by Raja Man Singh Amber, it also includes a temple in its premise. The palace was used as a resident for the visitors from Jaipur and the royal family during their visit to Pushkar. Currently known as RTDC Hotel Sarovar Pushkar, run by the tourism corp.



Raja Man Singh I was the ruler of Amer and a devoted Hindu and Krishna Bhakt, he built the famous Govind Dev Temple at Vrindavan in 1590 at a cost of Half a Million Rupees of those times all from his pocket, 


It was because of his own stature that no one could appose this construction. It was once a magnificent seven storey structure built in the form of Greek cross.


Interior of Govind Dev Ji Temple In Vrindavan 

7 Storey Temple Was Constructed In 1590 A.D   

Later Mughal Emperor Aurangzeb Demolished Top 4 Storeys, 


Just before destruction the head priest of the Govinda dev Temple, Sri Shiva Ram Goswami, decided to move the divine holy deity to Jaipur secretly 



And since then the original idol of Lord Govindaji is worshipped there in Jaipur. Since then, all rulers of Jaipurs held the position as the Deewan of Govind Dev ji.


Sawai Jai Singh also reclaimed the original Govind Devji temple at Vrindavan. Murti of the God was installed there. Ownership of the temple remained with the Jaipur Maharajas, as there is a letter from Vrindavan asking Sawai Pratap Singh to settle a dispute.


Letter circa 1770s at the Rajasthan State Archives, Bikaner, calls it a Hindi letter but the language is Braj with dashes of Sanskrit, Hindi, Dhundhari. 
"ईन सूं टंटो कीयो" argued/clashed with him
"तुरकन के घिराय दियो" got him arrested by turks (i.e. mughals) 


Another lesser known temple exists besides the Rawal lake of islamabad which is taking it's last breath.



 Lesser known temples exist in whole Rawalpindi and islamabad area which are illegally occupied by the Muslims.



Ragini Todi  on the frieze programme at the cenotaph of Mirza Raja Man Singh, in Amber, with a Mughal chevron flourish below.

The historians had not done justice with Majaraja Mansingh-I of Amer. He tried his best to save the temples. He constructed many temples and done great service to  Sanatan Dharm. This was done by him while working under Akbar & Salim. He was a child, only 12 years old, when Akbar took him away from his parents as a pawn. The child grew at Agra & became a commander. Sawai Maharaja Mansingh have taken many positive and far reaching decisions for the service of Dharm.But interestingly people credit Akbar & Shahjahan rule as era of peace etc. Whereas the credit should be given to Raja man Singh & Raja Jai Singh who did not allowed the common man to suffer which became a norm during Aurangzeb rule...

Kachhwahas fought alongside Hindu Shahi in Punjab against Ghazni. They fought Ghazni in central india alongwith Chandels. They fought Ghori alongwith Chauhan. They fought Muhammad bin Tughlaq. They fought Babur alongwith Sisodias. But people only talk abt alliance with Mughals,  since Akbar. Who didn't ally with Mughals eventually ? Name a kingdom or dynasty ? Instead of speaking ills about them we should remember how many times they fought the invaders. The real terror like Ghazni, Ghori, Tughlaq etc.

But the Hegelian and the Marxist treason to India blighted our knowledge systems and besmirched the character of our ancestors. Nothing but a revolution can protect Dharma now. Much appreciated attempt by @thakuragain and @Pragyata_ to bring out the truth of this traduced braveheart Commander who single-handedly revived each one of our teerth sthaanas besides contributing immensely for building, renovating & upkeep of temples, unifying whole country; never stamped his name on any of his contributions.!


Never forget those on whose shoulders we stand. They resisted, their stories were suppressed but they made sure Dharma flourishes.


Sawai Maharaja Maan Singh Kachawaha ji ko shat shat naman..










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