Wednesday, March 24, 2021

HERO OF AUGUST KRANTI LAL PADMADHAR SINGH BAGHEL - IMMORTAL RAJPUTS

'करें हम आओ जतन मादरे वतन के लिए, शहीदे हो गए कितने जवां अमन के लिए।'


पूरा देश जंग-ए-आजादी की 70वीं वर्षगांठ मानाने जा रहा है, जिसको इसको लेकर देश भर तैयारियां अंतिम चरण में हैं। स्वाधीनता दिवस पर पूरा हिंदुस्तान आसमान में तिरंगे को फहराने को बेताब है। आजादी की लड़ाई की बात हो और इलाहाबाद का नाम ना आए बिना कहानी अधूरी रह जायेगी। आपको आजादी के इन दीवानों के बारे में बताते है, जिन्हें इतिहास के पन्नों पर सही जगह तक नहीं मिली। पूरा हिंदुस्तान अंग्रेजी हुकूमत की जंजीरों में जकड़ा था। हर तरफ मुक्त होने की बेताबी थी।

देश में अंग्रेजों की दास्ता से मुक्त करवाने में न जाने कितने भारतीय वीर सपूतों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया। विषम परिस्थतियों का सामना करते हुए स्वाधीनता संघर्ष को आगे बढ़ाते रहे। इन्हीं वीरों में अमर शहीद लाल पद्मधर सिंह भी हैं। जिनका जन्म सतना के कृपालपुर में 14 अक्टूबर 1913 को हुआ। संपूर्ण जीवन स्वाभिमान से भरा था। उनकी दृढ़ मान्यता थी कि, जीवन की सुख-सुविधाएं तथा क्रांति दोनो मार्ग भिन्न हैं।

स्वर्गीय मेजर महेन्द्र सिंह(भतीजे) के अनुसार, पद्मधर सिंह विद्यार्थी जीवन से ही स्वाभिमानी थे। विषम परिस्थतियों में भी चरित्रबल डिगने नहीं दिया। एक बार हाईस्कूल में अध्ययन के दौरान प्रयोगशाला में भौतिक उपकरण प्रिज्म चोरी हो गया। कश्मीरी प्रधानाध्यापक एसके टोपे ने चोरी का आरोप लगाकर कमरे की तलाशी ली। किन्तु न पाकर टोपे परेशान हुए। लेकिन आत्मसम्मान में आघात पद्मधर सिंह स्वीकार न कर सके। उन्होंने टोपे को गोली मार दी। सात साल कारावास की सजा हुई। रीवा जेल जाना पड़ा। यहां पर परिचय गुढ़ स्कूल के हेडमास्टर हनुमंत प्रसाद से हुआ। जिनके सहयोग से जेल में हिन्दी विशारद उत्तीर्ण किया। लगन के कारण हाईस्कूल भी पास हुए। अच्छे आचरण और व्यवहार से कारावास घटाकर तीन साल कर दिया गया। इसके बाद प्रयाग विश्वविद्यालय चले गए। अन्य निकटतम मित्र स्व. लखन प्रताप सिंह 'उर्गेशÓ निवासी कटिया(रिटायर्ड विक्रयकर आयुक्त) के अनुसार, पद्मधर सिंह खादी का कुर्ता एवं पैजामा पहनते थे। साहित्य में गहरी रुचि थी। राजपूत प्रभात नामक हस्तलिखित पत्रिका का शुभारंभ किया। मौलिक कहानियां परिवर्तन, मित्रता, पड़ोसी, बहते हुए तिनके, दरबार इंटरमीडिएट कॉलेज की पत्रिका में प्रकाशित हुए।


अमकुईं के पूर्व सरपंच मोतीमन सिंह के अनुसार, पद्मधर सिंह डॉक्टर बनना चाहते थे। इसलिए इंटर में विज्ञान विषय चुना। नया विषय होने से एक वर्ष नष्ट करना पड़ा। विचार की दृढ़ता से सफलता मिली। पूर्व विधानसभा अध्यक्ष स्व. शिवानंद के अनुसार, संवेदनशील व्यक्ति जब असामान्य एवं अमानवीय वातावरण में विकसित होगा तो उसके संवेदनशील स्नायुओं को क्षति पहुंचेगी और उस अमानवीय व्यवहार के विरुद्ध संघर्ष के लिए तैयार हो जाएगा। अंतिम पत्र 81 हिन्दू बोर्डिंग विश्वविद्यालय इलाहाबाद से लिखा था, उसमें तत्कालीन घटनाओं से मानसिक उहापोह और राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना को दर्शाता है। पत्र डॉ. लक्ष्मीकांत मिश्रा(संयुक्त संचालक स्वास्थ्य) को इलाहाबाद से 7 अगस्त 1942 को लिखा गया। जो 11 अगस्त को पूर्ण हुआ और 12 को वे शहीद हो गए।

'देश की आवाज बलिबेदी की ओर बढऩे के लिए पुकार रही है। हमारे नेताओं की यह आखिरी तैयारी है, अंतिम लड़ाई है और अंतिम आह्वान है। शायद बहुतों का अंतिम प्रण है, उन्हें हम नवयुवकों विशेषकर विद्यार्थी जगत से बड़ी आशा है। बूढ़ों को गोलियों का निशाना बनते देखकर हमारे नवयुवक बैठे न रह जाएं, इस वक्त अगर हम पीछे हटते हैं तो धोखेबाज एवं कायर कहलाएंगे। हालात यह हैं कि मेरी गति उस तराजू की तरह हो जाती है जिसके एक पलड़े में कर्तव्य पालन रखा है और दूसरे में सुख और वैभव के मीठे-मीठे प्रलोभन। कभी यह पलड़ा झुकता है तो कभी वह मस्तिष्क में एक क्षण के लिए भी स्थिरता नहीं।

कभी जब मैं देखता हूं उन चुलबुलाती हुवे युवक युवतियों को पार्क की मंद-मंद शीतल पवन में घूमते हुए उन युगल जोड़ों को मोटर और बग्घी में चलने वाले उन रईशों को तो इस वैभव की स्वर्णमयी प्रतिमा नाचने लगती है। मैं सोचने लगता हूं कि मुझे ही क्या पड़ी है, यह जीवन के आनंद को त्यागकर इस जलती हुई ज्वाला में कूदूं। दोनों बड़ी समस्याएं मेरे सामने हंै एक में जाने से सुख पर कायरता से दूसरे में जाने से दु:ख है परंतु कर्तव्य पालन के साथ। भाई यह समय कितना बहुमूल्य है घटनाएं इतने जोरों से पलटा खा रही हैं कि उनके साथ-साथ चलना कठिन पड़ रहा है। कल जो बातें सोचकर तुम्हे पत्र लिखा था वह आज के लिए बेकार हैं। कल मंसूबे बांधता था आगे बढऩे से हिचकिचाता था, आज अब उसके लिए अवसर ही नहीं रह गया कि किसी से सलाह लूं।


बात अगस्त 1942 की है, जब महात्मा गांधी ने मुम्बई से भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा कर दी थी। मुम्बई, दिल्ली, पटना, वाराणसी और फिर इलाहाबाद तक आंदोलन चिंगारी पहुंच चुकी थी। अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा बुलंद हो रहा था। गांधी जी की अगुवाई में देश भर के युवा बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे। उस आंदोलन में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के युवाओं ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इलाहाबाद में आंदोलन की शुरुआत 11 अगस्त को हुई। अंग्रेजों के खिलाफ शहरभर में जुलूस निकाले गए और शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन हुए जिसमें इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों ने मुख्य भूमिका निभाई।

विवि के छात्रों ने 12 अगस्त को कलेक्ट्रेट को अग्रेजों से मुक्त कराने और तिरंगा फहराने की योजना बनाई लेकिन इसकी भनक अंग्रेजी हुकूमत को लगते ही कलेक्ट्रेट तक आने वाले रास्ते पर पुलिस तैनात कर दी गई। 12 अगस्त की सुबह इविवि के छात्रसंघ भवन से छात्र-छात्राओं का जुलूस तिरंगा लेकर कलेक्ट्रेट के लिए रवाना हुआ। इसका नेतृत्व इविवि की छात्राएं कर रही थीं।

ब्रिटिश सैनिकों ने भीड़ को रोक लिया और वापस जाने की चेतावनी देते हुए छात्राओं पर बंदूक तान दी। इविवि की छात्र-छात्राएं वापस नहीं लौटी तो फिरंगी फौज ने हवाई फायरिंग कर दी, जिससे भगदड़ मच गई। इस भीड़ में शामिल नौजवान लाल पद्मधर सिंह ने सामने आकर सिपाहियों को चुनौती दी लड़कियों पर क्या गोली तान रहे हो मेरे सीने पर गोली चलाओ। इसके बाद लाल पद्मधर तिरंगा हाथ में लेकर कलेक्ट्रेट की जोर बढ़े ही थे, तभी अंग्रेज सिपाहियों की गोली से उन्हें छलनी कर दिया। विवि के उनके साथी उन्हें अस्पताल तक पहुंचाते उसके पहले ही भारत मां के लाल की सांसे थम गई। यह खबर फैलते ही पूरे शहर में कोहराम मच गया। विवि के छात्रों ने अंग्रेजों भारत छोड़ो, हिंदुस्तान हमारा है का नारा बुलंद किया।

इलाहाबाद विवि अपने वीर सपूत पर गर्व करता है। 1942 के बाद से अब तक विवि छात्रसंघ में निर्वाचित होने वाले छात्रनेता लाल पद्मधर के नाम की ही शपथ लेते हैं। इविवि के पूर्व अध्यक्ष रामाधीन सिंह ने बताया, लाल पद्मधर सिंह मध्यप्रदेश के सतना-रीवा के माधवगढ़ घराने से थे। वे विवि में स्नातक के छात्र थे। 11 अगस्त की रात छात्र संघ भवन में जिन 31 क्रान्तिकारी छात्रों ने आंदोलन की शपथ ली उनमें लाल पद्मधर भी थे। इविवि छात्रसंघ भवन और कलेक्ट्रेट परिसर में उनकी मूर्ति स्थापित है।


How small we look when in the midst of quota stir we compare ourselves with those selfless, devoted, dedicated freedom fighters who sacrificed their lives to save the honour of the country, to fight for the liberation of one and all and who gave us the message that India is one, we are all one irrespective of our faiths and castes. What the freedom fighters strove for was highlighted in a patriotic song that stirred the nation into a wave of unity during the days of our peril: ‘Awaz do hum Ek Hain’.

Today what do we find? Bureaucracy is divided, police is divided, students are divided, states are being divided, people are being divided to satisfy the lust of provincial lords ordering those of other regions to quit the state or face their wrath. It was not for this India that martyrs like Lal Padamdhar Singh laid down their lives. They were martyrs. We should seek inspiration from their lives and let us not forget their sacrifices or insult their memories by doing just the reverse of what they had striven for. But first remember them: ‘Jo shaheed hue hain un ki zara yad karo qurbani’

Lal Padmadhar Singh of Allahabad University became the uncrowned king of the hearts of all University students when on August 12, 1942 he sacrificed his life by facing the British bullets to protect the tricolour during the students march towards the Collectorate. Lal Padmadhar was barely 29 when he gained martyrdom; and since then, on this day, the young martyr is always remembered by a grateful nation, especially the youth of Allahabad and students of Allahabad University who continue to be inspired and motivated by the bravery and valour exhibited by him to show to the British that the youth were not lagging behind in the pursuit of freedom from the tyranny of their oppressive rule.
We pay our respectful homage to that noble soul of whom Even Today, Allahabad University's Student Take Oath of...


TRIBUTE TO A YOUNG MARTYR OF 1942
WHEN EVEN STUDENTS WERE NOT SPARED

Lal Padmadhar Singh Baghel was born around 1913 in Village “Kripalpur Garhi” of Rewah State of Baghelkhand agency modern Kripalpur Village of Satna District Madhya Pradesh. The son of Vindhya Pradesh sacrificed his life at a young age for the pride and dignity of his country.

August 12 is a Red Letter day in Allahabad’s history of freedom movement because it was on this day when the ‘Quit India’ agitation reached its deadly climax in the city with the gunning down of a young and bright University student Lal Padmadhar Singh when he was leading a procession of protesting students from the University to the Collectorate. The next day the British stooges opened fire near Kotwali when a promising young lad Ramesh Malaviya attained martyrdom. Two others also fell to the British-ordered firing , one a washer-man and the other a barber. Some stirring and inspiring glimpses of that deadly occasion have been given by an eye-witness Pannalal Gupta Manas who was then 11 years old and was studying in Class 4 in Lukerganj Primary School. Now a columnist and a writer, Manas vividly remembers that occasion when the University students led by Lal Padmadhar Singh started marching towards the Kutcherry. The police soon surrounded them and asked them to disperse. But the students were adamant not to give in. Manas says that when the procession of protestors reached the Manmohan Park they were served with the warning to go back or else they will be riddled with bullets. It was then that Lal Paadmadhar bared his chest and shouted at the British stooges:’ Open fire, let us see how many bullets are there in the armoury of the British’. The moment Lal Padmadhar advanced further the police guns started booming and Lal Padmadhar fell down. According to some others, the moment he fell, the flag in his hands was not allowed to touch the ground but was immediately retrieved from the dying martyr’s hand by another freedom fighter. ‘Jhanda ooncha rahe hamara’ was the slogan that was renting the air till the cruel British bullets snatched away a young life and made a martyr of him.

He recalls that this led to furious reaction in the city. Railway stations and post offices were being attacked by the angry mobs. He recalls that he too joined a procession of his schoolboys protesting against the outrage. The students had planned to set afire the post office located in the Leader Press buildings. They too were chanting Jhanda ooncha rahe hamara and had barely reached the Khusraubagh Road when the police spotted them, chased them and apprehended many including Manas himself. He was questioned by Khuldabad police and asked to reveal who had instigated them. But they had nothing to reveal. They were put up in the lockup and had to remain there the whole night. 


The British were frightened even of 11-year old boys. Then how could they spare Lal Padamadhar who was a fiery youth and had come ready to shed his blood for the motherlland? We once again salute Lal Padmadhar and other martyrs, especially the unknown ones, who laid down their lives for the freedom of the motherland.






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