Wednesday, March 17, 2021

BRAVE PRINCE PADAM SINGH RATHORE OF BIKANER - IMMORTAL RAJPUTS

"Warriors as brave as any who have sprung from the Rathore stock"


पद्मसिंह "जयजंगलधर बादशाह" के नाम से इतिहास में मशहूर बीकानेर के महाराजा करणसिंह के तीसरे पुत्र थे| उनका जन्म महाराजा करणसिंह जी की रानी स्वरूपदे हाड़ी की कोख में वि.स. 1702 वैशाख सुदि 8 (22 अप्रेल 1645) को हुआ था| उनकी वीरता और पराक्रम की इतिहास में कई गाथाएँ प्रसिद्ध व चर्चित है| धर्मातपुर, समुनगर आदि के युद्धों में पद्मसिंह औरंगजेब के पक्ष में लड़े और अपनी वीरता की धाक जमाई| शहजादे शुजा के मुकाबले में जब शाही सेना खजवा का युद्ध जीतकर आई तब बादशाह औरंगजेब ने पद्मसिंह व उनके भाई केसरीसिंह का यहाँ तक सम्मान किया कि अपने रुमाल से उनके बख्तरों की धूल झाड़ी| फिर उनको बादशाह ने दक्षिण में तैनात किया जहाँ उन्होंने अपनी तलवार के जौहर दिखलाकर अपनी वीरता प्रदर्शित की|


सकेला की बनी उनकी तलवार आठ पौंड वजनी तीन फूट ग्यारह इंच लम्बी और ढाई इंच चौड़ी है| उनके शास्त्राभ्यास का खांडा (खड्ग) पच्चीस पौंड वजन का चार फूट छ: इंच लम्बा और ढाई इंच चौड़ा है, जिसको आजकल का पहलवान सरलता से नहीं चला सकता| पद्मसिंह के ये दोनों हथियार आज भी बीकानेर में सुरक्षित है| उनकी तलवार चलाने की निपुणता पर यह दोहा इतिहास में प्रसिद्ध है-

कटारी अमरेस री, पदमे री तरवार|
सेल तिहारो राजसी, सरायो संसार||

Maharajkumar Padam Singh Ji and Maharajkumar Keshri Singh Ji of Bikaner as depicted in Bikaner War Paintings by AH Muller. Aurangzeb brushing off the dust with his own handkerchief from the armor of two redoubtable sons of Maharaja Karan Singh Ji of Bikaner. 

पद्मसिंह की वीरता पर कर्नल पाउलेट गैजेटियर ऑफ़ दि बीकानेर स्टेट के पृष्ट 42 पर लिखता है- "पद्मसिंह बीकानेर का सर्वश्रेष्ठ वीर था और जनता के हृदय में उसका वही स्थान है, जो इंग्लैण्ड की जनता के हृदय में रिचर्ड दि लायन हार्टेड (सिंह-हृदय रिचर्ड) का है|"

इतिहासकार गैरीशंकर हीराचंद ओझा बीकानेर राज्य के इतिहास में लिखते है- "घोड़े पर बैठकर उसे दौड़ाते हुए पद्मसिंह का एक बड़े सिंह को बल्लम से मारने का एक चित्र बीकानेर में हमारे सामने में आया| यह चित्र प्राचीनता की दृष्टि से दो सौ वर्ष से कम नहीं है| उस (पद्मसिंह) की वीरता की गाथाएँ कपोलकल्पित नहीं कही जा सकती और नि:संकोच कहा जा सकता है कि वह बीकानेर राजवंश में बड़ा ही पराक्रमी योद्धा था|"

7 मार्च 1672 को महाराष्ट्र के औरंगाबाद स्थित शाही दीवानखाने में बीकानेर के राजकुमार मोहनसिंह और औरंगाबाद के कोतवाल मुहम्मद मीर तोजक के बीच एक हिरण को लेकर विवाद हुआ| कोतवाल मुहम्मद मीर तोजक औरंगजेब के शहजादे मुअज्जम का साला था तो मोहनसिंह भी शाहजादे के अतिप्रिय थे| हिरण के इस विवाद ने देखते ही देखते ही झगड़े का रूप ले लिया| दोनों ओर से तलवारें खींच गई| मोहनसिंह अकेले थे और कोतवाल के साथ उसके कई सहयोगी थे| अत: कुछ क्षण की ही तलवारबाजी के बाद कोतवाल के आदमियों ने मोहनसिंह की पीठ पर पीछे से एक साथ कई वार कर गहरे घाव कर दिए| इन घावों से बहे रक्त की वजह से निस्तेज होकर मोहनसिंह दीवानखाने के खम्बे के सहारे खड़े हुए ही थे कि कोतवाल के एक अन्य आदमी ने उनके सिर पर वार किया, जिससे वे मूर्छित से होकर भूमि पर गिर पड़े|

दीवानखाने के दूसरी ओर मोहनसिंह के बड़े भाई पद्मसिंह बैठे थे| झगड़े व अपने भाई के घायल होने का समाचार सुनकर वे दौड़ते हुए आये और देखा कि भाई खून से लतपथ पड़ा है| तब जमीन पर पड़े अपने भाई को धिक्कारते हुए पद्मसिंह ने कहा- इस तरह कायरों की भांति क्यों पड़े हो? मोहनसिंह ने जबाब दिया कि- "मेरी पीठ पर धोखे से दिए घावों को देखो और उधर देखो मुझे घायल करने वाला कोतवाल जिन्दा खड़ा है|" पद्मसिंह ने उधर नजर डाली तो कोतवाल एक खम्बे के पास खड़ा था| 

पद्मसिंह अपनी सकेला की बनी आठ पौंड वजनी तीन फूट ग्यारह इंच लम्बी और ढाई इंच चौड़ी तलवार लेकर कोतवाल पर झपट पड़े और एक ही प्रहार में कोतवाल का सिर कलम कर दिया| कोतवाल पर पद्मसिंह की तलवार का वार इतना शक्तिशाली था कि कोतवाल का सिर काटते हुए तलवार खम्बे में घुस गई| पद्मसिंह की तलवार का निशान आज भी उक्त खम्बे में देखा जा सकता है| इस घटना पर कर्नल टॉड ने लिखा है- "पद्मसिंह की तलवार के प्रहार से दीवानखाने का खम्बा तक टूट गया|"

इसी घटना पर अपनी इतिहास पुस्तक में इतिहासकार जस्टिस अमरसिंह राजवी लिखते है- Padam Singh drew his sword, grasped his shield and hurried into durbar where Mir Tuzuk had gone. Mir Tuzuk, when he saw the infuriated Padam Singh enter, with sword and shield, prepared for dreadful vengeance, retreated behind one of the columns of Amin Khas-hall of audience. Padam Singh's sword reached him and avenged his brother's death. Mir Tuzuk was felled to to the earth. It appears that the sword of Padam Singh also struck the pillar and chip of the pillar was broken off. That scar, sustained at the time, in the shape of a chip off the sword of Padam Singh still exists.


पद्मसिंह ने जिस फुर्ती और वीरता का प्रदर्शन कर कोतवाल मुहम्मद मीर तोजक को मारकर अपने भाई की हत्या का का बदला लिया, उस पर किसी कवि ने कहा-

एक घड़ी आलोच, मोहन रे करतो मरण|
सोह जमारो सोच, करतां जातो करणवत||

भावार्थ:- मोहनसिंह के मरण पर यदि एक घड़ी भर भी विचार करता रह जाता तो हे करणसिंह के पुत्र, तेरा सारा जीवन सोच करते ही बीतता|

इसका आशय है कि यदि उस वक्त पद्मसिंह एक घड़ी भी देर कर देता तो मोहनसिंह का हत्यारा भाग जाता, जिससे वह उसका बदला फिर कभी नहीं ले सकता था और जीवनपर्यन्त उस को यही सोच बना रहता कि अपने भाई की हत्या का वह बदला नहीं ले सका|

कोतवाल मुहम्मद मीर तोजक शहजादे का साला था, जिसकी हत्या की पद्मसिंह को सजा मिल सकती थी, फिर भी पद्मसिंह वहां से भागे नहीं| बल्कि उसकी लाश के पास खड़े रहे ताकि उसे उठाने वाले को भी मार सके| पर पद्मसिंह के क्रोध को देखकर पास खड़े सभी शाही सेवक भाग खड़े हुए, पद्मसिंह के पास आने की किसी की भी हिम्मत नहीं हुई| उधर घायल मोहनसिंह को ले जाने के लिए राजपूत पालकी ले आये, तभी राजा रायसिंह सीसोदिया (टोडे का), जिनका पांच हजारी मनसब था, आ पहुंचे और मोहनसिंह को लेकर डेरे की ओर चल दिए| उस वक्त तक मोहनसिंह जिन्दा थे पर डेरे पर पहुँचते पहुँचते उनकी मृत्यु हो गई| मोहनसिंह की मृत्यु के बाद पद्मसिंह के कहने पर वहां तैनात जयपुर, जोधपुर, हाड़ौती के राजपूतों के साथ सीसोदिया आदि सभी राजपूत एक साथ औरंगाबाद की शाही सेवा को छोड़कर अपने अपने ठिकाने को रवाना हो गए तब शहजादे ने उन्हें रोकने के लिए अपने कई अधिकारीयों को भेजा पर वे नहीं माने| आखिर खुद शाहजादा मुअज्जम 20 किलोमीटर दूर उन्हें मनाने आया और मोहनसिंह की हत्या करने वालों की पूरी जांच करने के आदेश दिये और 20 किलोमीटर से उन्हें वापस लाने में सफल हुआ|

चैत्र बदि 12, वि.स. 1739 (14 मार्च 1683) को दक्षिण में तापती (तापी) के तट पर सांवतराय और जादूराय नामक मराठा वीरों व उनके आदमियों को उनके साथ हुए युद्ध में मारकर बीकानेर राजवंश का यह इतिहास प्रसिद्ध वीर इतिहास में अपनी वीरता की अमिट छाप छोड़कर परलोक सिधार गया|

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